________________ आश्चर्यकारी ग्रन्थ सिरि भूवलय - डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज', इन्दौर मंगलं भगवानर्हन्मंगलं भगवान् जिनः। मंगलं घरसेनार्यों मंगल वृषभेश्वरः।। सिरिभूवलय आश्चर्यान्वित कर देने वाला तथा आज के वैज्ञानिकों को चुनौतीपूर्ण अद्भुत. ग्रन्थ है। आवीं-नवमी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कमदेन्द द्वारा लिखा गया यह अपने आप में अनद्य ग्रन्थ मात्र अंकचक्रों में निबद्ध है। इसमें 1 से 64 तक के अंकों को लिया गया है। एक अंकचक्र में 27 कॉलम खड़े और 27 कॉलम पड़े, इस तरह से कुल 729 खाने बनाये गये हैं, उनमें विशेष विधि से अंक लिखे गये हैं। इस तरह के कुल 1294 अंकचक्र हैं, जो हमें उपलब्ध हैं। अब से पहले तक 1270 अंकचक्रों की जानकारी थी। इन अंकचक्रों से कुल 21,134 सांगत्य प aa निःसृत होते हैं। सभी यन्त्रों के 12944727 = 9,43,326 अक्षर हुए। इसमें 59 अध्याय हैं + २९वाँ द्वितीय, श्रुतावतार और मङ्गल प्राभृत- इस तरह 62 अध्याय कह सकते हैं। ग्रन्थ के सम्पूर्ण उपलब्ध 1294 अंकचक्रों से अलग-अलग एंगिल से 70,096 अंकचक्र बनेंगे। इनके अक्षर 5,10, 30, 000 होंगे और उनसे लगभग 47, 25, 000 प / बनेंगे; किन्तु हमारी क्षमता 000 अंकचक्र बनाने की है, जिनसे लगभग 9 लाख पा बनेंगे। इनसे समसत द्वादशांग, 363 दर्शनों के सिद्धान्त, 64 कलाएँ, 718 भाषाएँ, विषय- धर्म, विज्ञान व्यवस्थित रूप से पूर्ण विवेचित होगा। इस ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य कुमुदेन्दु हैं। ये बैंगलोर से 38 मील दूर नन्दी पर्वत के समीप 'यलवल्ली' के निवासी थे। इन्होंने अपना नाम कौमुदीन्दु भी लिखा है। आचार्य कुमुदेन्दु वदलाकार आचार्य वीरसेन के शिष्य थे, ऐसा इन्होंने इस ग्रन्थ में अनेक जगह उल्लेख किया है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीट, इन्दौर के शोधार्थिकारी रहते 1 अप्रैल 2001 से मैंने इसका कार्यारम्भ किया। चार माह की अल्प अवधि में मैंने इसे पढ़ने की यह अनूध विधि खोज निकालने में सफलता प्राप्त कर ली। वर्तमान में इसका कार्य 'जैन संस्कृति शोध संस्थान, इन्दौर' में गतिमान हैं। भाषाएँ व लिपियाँ ___ सिरि भूवलय की रचना-लिपि अंक-लिपि है। इसे लिखने में केवल अंकों का प्रयोग किया गया है, वह भी केवल 1 से 64 तक के अंकों का ही, क्योंकि जैनाचार्यों ने कहा है कि समस्त भाषाओं में से किसी भी भाषा की वर्णमाला में स्वर और व्यञ्जन मूलवर्ण 64 से अधिक नहीं है। गोम्मटसार, धवला आदि ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश है तेत्तीस वेंजगाई सत्ताबीसा सरा तहा भणिया। चत्तारि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ।। -173 -