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________________ आता। वह ज्ञाता के द्वारा जानी जाती है, तब प्रमेय बन जाती है और ज्ञाता जिससे जानता है, वह ज्ञान यदि सम्यक् अर्थात् निर्णायक हो तो प्रमाण बन जाता है। इसी आधार पर न्यायशास्त्र की परिभाषा निर्धारित की जाती है। न्याय-भाष्यकार (1/1/1) वात्स्यायन के अनुसार प्रमाण के द्वारा अर्थ का परीक्षण न्याय कहलाता है। उद्योतकर ने प्रमाण-व्यापार के द्वारा किये जाने वाले अधिगम को न्याय माना है (न्यायवार्तिक) इसी प्रकार समस्त जैनेतर दर्शनों ने प्रमेय के निर्णय हेतु मात्र प्रमाण की ही अवकल्पना की है, लेकिन अनेकान्त को वस्तु का स्वरूप स्वीकार करने वाले तथा स्याद्वाद को कथनशैली मानने वाले जैनदर्शन ने प्रमेय के अधिगम के लिए प्रमाण के साथ नयों की अवधारणा अनिवार्य मानी है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी लिखते हैं- "प्रमाणनयैरधिगमः।" अतएव जैनदर्शन के अनुसार न्याय का लक्षण है- “प्रमाणनयात्मको न्यायः" अर्थात् न्याय प्रमाण-नयात्मक होताहै। इनमें से वस्तु को समग्रता से जानने वाला प्रमाण है और प्रमाण से ग्रहीत वस्तु के एक अंश को जानने वाला नय है। न्यायशास्त्र के सर्जक दक्षिण भारत के प्रमुख आचार्य जैन-न्याय के प्रचार-प्रसार में मुख्यरूप से दक्षिण भारत के आचार्यों का ही महत्त्वपूर्ण योगदान है। आचार्य समन्तभद्र जैन-न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य हैं, तो आचार्य अकलंक ने जैन-न्याय को पल्लवित व पुष्पित किया है। आचार्य विद्यानन्द भी जैन-न्याय को विशेष विस्तार प्रदान करने वाले हैं। आचार्य समन्तभद्र यद्यपि आद्य स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, तथापि उनके स्तुति-स्तोत्रों में मात्र अतिशयोक्तिपूर्ण भक्ति ही नहीं है, दार्शनिक मान्यताओं का समावेश भी है। स्तुति में तर्क व युक्ति का प्रयोग सर्वप्रथम आपने ही किया- यह आपकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक है। आपके द्वारा रचित न्याय विषयक ग्रन्थ प्रमाण-पदार्थ अनुपलब्ध है, लेकिन युक्त्यनुशासन व देवागमस्तोत्र (आप्तमीमांसा) में आपने युक्तिपूर्वक महावीर के शासन का मण्डन और विरुद्ध मतों का खण्डन किया है। अत: इनको न्यायशास्त्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। आचार्य समन्तभद्र ने प्रमाण का स्वरूप, वस्तु की अनेकान्तिकता, आप्त की वास्तविक पूज्यता आदि के सन्दर्भ में अनेक नये उपादान जैन-साहित्य को प्रदान किये हैं। दक्षिण के ही मान्यखेट के राजा शुभतुङ्ग के मन्त्री के पुत्र आचार्य अकलङ्क प्रखर तार्किक व दार्शनिक थे। डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य के अनुसार जैन-परम्परा में यदि समन्तभद्र जैन न्याय के दादा हैं तो अकलङ्क पिता हैं। आपके द्वारा रचित सभी शास्त्र दर्शन और न्यायविषयक ही हैं। आपने मौलिक व टीका ग्रन्थ दोनों की ही रचना की है। आपके मौलिक ग्रन्थों के अन्तर्गत स्वोपज्ञवृत्ति सहित लघीयस्त्रय, सवृत्ति न्यायविनिश्चय, सवृत्ति सिद्धिविनिश्चय, सवृत्ति प्रमाणसंग्रह हैं। टीका ग्रन्थों के अतर्गत तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य तथा अष्टशती-देवागमविवृति आते हैं। इन सभी का मुख्यविषय न्याय ही है। अकलङ्कदेव की जैनन्याय को सबसे बड़ी देन है- प्रमाणव्यवस्था, जो दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों -165
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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