________________ जैन-न्याय के सर्जन दक्षिण भारतीय प्रमुख जैनाचार्य दक्षिण भारत के जैनाचार्यों का जैन-न्याय के विकास __ में योगदान - पं. शान्ति पाटिल, जयपुर जैनाचार्यों द्वारा रचित वाङ्मय बहुत विशाल और व्यापक है। प्राप्त परम्परा के अनुसार ग्रन्थों का प्रणयन करने वाले सभी आचार्य एक तरह से सर्वज्ञ के वाणी के अनुवादक ही है, क्योंकि ये अपनी ओर से किसी नये तथ्य का प्रतिपादन नहीं करते हैं, मात्र तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित तथ्यों को नये रूप और नयी शैली में अभिव्यक्त करते हैं। इसीलिए वे सभी पूर्णरूपेण प्रामाणिक ही है। यह आगमज्ञान भी प्रत्यक्षज्ञान के समान ही प्रमाणभूत है। जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान अविसंवादी होने के कारण प्रमाणभूत है, उसी प्रकार आगमज्ञान भी अपने विषय में अविसंवादी होने के कारण प्रमाण ही है। स्वामी समन्तभद्र ने केवलज्ञान व स्याद्वादमय श्रुतज्ञान को समस्त पदार्थों के प्रकाशन में समान रूप से प्रमाण स्वीकार किया है। जिनागम में न्याय का स्थान 1. इसी द्वादशांगरूप आगम को चार अनुयोगों में भी विभक्त किया जाता है। शास्त्र के कथन करने की शैली को अनुयोग कहते हैं। ये अनुयोग चार प्रकार के हैं- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। जिसमें तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि महान् पुरुषों के चरित्र का निरूपण हो, वह प्रथमानुयोग है। जिसमें गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि जीवों के विशेष, कर्मों के विशेष तथा त्रिलोक आदि की रचना का निरूपण हो वह करणानुयोग है। गृहस्थ व मुनिधर्म के आचरण को निरूपित करने वाला चरणानुयोग है। षड्द्रव्य, सप्ततत्त्वादिक का व स्वपर भेदविज्ञानादिक का जिसमें निरूपण हो, वह द्रव्यानुयोग है। इन चारों अनुयोगों की भी प्रत्येक की अपनी-अपनी व्याख्यान की विशेष पद्धति है, पं० टोडरमल जी ने अपने मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ में कहा है ....द्रव्यानुयोग में न्यायशास्त्रों की पद्धति मुख्य है। क्योंकि वहाँ निर्णय करने का प्रयोजन है और न्यायशास्त्रों में निर्णय करने का मार्ग दिखाया है। ........ तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी जिनमत में पाये जाते हैं।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ. 286-87) इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनागम का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत न्यायशास्त्रों का समावेश होता है, अत: न्यायशास्त्र को जिनागम में विशेष स्थान प्राप्त है। न्याय का स्वरूप वस्त का अस्तित्त्व स्वत: सिद्ध है। ज्ञाता उसे जाने या न जाने. इससे उसके अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं -164