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________________ पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाओं का स्वरूप और उपयोगिता : वर्तमान परिप्रेक्ष्य में - पं. विनोदकुमार जैन प्रतिष्ठाचार्य, रजवांस पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा मूर्ति में मूर्तिमान की स्थापना प्रदान करने का विज्ञान है। जैन शासन में मूर्ति के आलम्बन से मूर्तिमान की पूजा का विधान मिलता है। वीतराग प्रतिमा की उपासना करके उपासक निजात्मा को वीतरागता के पथ पर ले जाने में सक्षम होता है। मूर्तियों में वीतरागता के संस्कार, जिनेन्द्र भगवान् के संस्कार एवं उनके गुणों को आरोपित कर संस्कारित किया जाता है। जिस विधि से पाषाण/धातु एवं प्रतिमा को संस्कारित कर भगवान् का रूप दिया जाता है, वह विधि पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा कहलाती है। पञ्चकल्याणक की आवश्यकता : गृहस्थों को दान और पूजा मुख्य आवश्यक कहे हैं। पूजा के लिए प्रतिमा एवं जिन मन्दिर की आवश्यकता होती है। गृहस्थी में पापकार्य से उत्पन्न होने वाले पाप की समाप्ति के लिए गृहस्थ को मन्दिर एवं मूर्ति का निर्माण करवाना चाहिए, जिससे उसे कल्पपर्यन्त यज्ञ करवाने का पुण्य प्राप्त होता है एवं गृहस्थ को अपने न्यायोपार्जित धन की सार्थकता के लिए पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा में उसका उपयोग करना चाहिए। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का उद्देश्य धन के सदुपयोग के साथ धर्म की स्थिति एवं वृद्धि भी है। वर्तमान में नगरीय आवास व्यवस्था की अनुकूलता के लिए भी मन्दिरों एवं प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आवश्यक हो गयी है। पञ्चकल्याणक के मुख्य आधार बिन्दु : पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाविधि में हम तीर्थङ्कर के जीव की अथ से इति अर्थात् गर्भ से मोक्ष तक की यात्रा के पाँच उन विशिष्ट प्रसंगों को प्रस्तुत करते हैं जो उनके जीवन की प्रमुख घटनाएं व प्रभावोत्पादक मोड़ हैं। ये राग से विराग की ओर ले जाते हैं। तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष ये पाँच प्रसंग कल्याणक के नाम से जाने जाते हैं. क्योंकि इन पाँच प्रसंगों की तीर्थडर के जीवन में अब पुनरावृत्ति नहीं होगी। अर्थात् गर्भ के बाद गर्भ, जन्म के बाद जन्म, दीक्षा के बाद दीक्षा, ज्ञान के बाद इसरा ज्ञान एवं मोक्ष के बाद पुन: मोक्ष नहीं होगा। पुनः संसार भी नहीं होगा। इन पाँच प्रसंगों के बाद उनका कल्याण हो जाता है एवं इन प्रसंगों को देखने एवं करवाने वालों का भी कल्याण हो जाता है। पञ्चकल्याणक की क्रियाओं की दिशा एवं समय : आचार्यों ने पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा को निर्दोष बनाने के लिए उसकी प्रत्येक क्रिया की दिशा एवं समय का निर्धारण किया है। जैसे- मण्डप का मुख्य द्वार उत्तर या पूर्व में, मुख्य वेदी और उत्तर वेदी पूर्व या उत्तर दिशा में ही नियमानुसार होना चाहिए। मुख्य बेदी के सामने ध्वज स्थापन, वेदी के उत्तर में हवनकुण्ड, पाण्डुक शिला, वेदी के पीछे आचार्य और इन्द्र की स्थिति समीप मेंस्नान एवं सामायिक का स्थान, वेदी के आगे पूर्व दिशा में दीक्षावन, समवशरण एवं ताण्डव नृत्य का स्थान, वेदी के दक्षिण में राजगृह एवं आहारगृह एवं मार्ग के समीप दानशाला बनाने का निर्देश है। गर्भावस्था का काल नव महीना, नव दिन या, नव प्रहर होना चाहिए। गर्भकल्याणक की क्रिया अर्द्ध रात्रि
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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