________________ पञ्चकल्याणक : सम्यक् जीवन शैली का दिग्दर्शक - ब्र. जयकुमार 'निशान्त', टीकमगढ़ पञ्चकल्याणक महोत्सव तीर्थङ्कर प्रभु के जीवन का जीवन्त प्रस्तुतीकरण है। तीर्थङ्कर काल के द्रव्य, क्षेत्र एवं भाव को दर्शाने के लिए सम्बन्धित पात्रों द्वारा मञ्चन के माध्यम से जहां बहुमान एवं जीवन शैली के चित्रण का प्रयास किया जाता है, वहीं मन्त्र अनुष्ठान, भक्तियों एवं शास्त्रोक्त क्रिया-विधि द्वारा पाषाण को भगवान् बनाने वाले विज्ञान की प्रक्रिया सम्पादित की जाती है। इस अनुष्ठान क्रिया-विधि में पाषाण एवं धातु बिम्बों में श्रद्धा, समर्पण एवं तपःशक्ति द्वारा अर्हत् गुणों का गुणारोपण किया जाता है। महापुरुषों की जिन घटनाओं द्वारा जीवमात्र का कल्याणपथ प्रशस्त होता है उसे कल्याणक कहते हैं। कल्याणक गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण पाँच होते हैं, यह तीर्थङ्कर भगवान् के जीवन में अन्तिम बार घटित होते हैं। इस प्रकार गर्भ से निर्वाण तक की मङ्गल यात्रा पञ्चकल्याणक कहलाती है। जो भव्य सम्यक्-दर्शन के साथ केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में अपायविचय धर्मध्यान की भूमिका में, तीनों लोकों के समस्त जीवों के कल्याण की भावना के साथ दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावना भाते हैं, वह तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध करते हैं। तीर्थङ्कर तीनों लोकों के प्राणियों में सबसे अधिक पुण्यशाली, शक्तिशाली, वैभवशाली तथा स्वयम्भू धर्माधिपति एवं मोक्षमागमी होते हैं। पञ्चकल्याणक अनष्ठान एवं तीर्थङ्कर के जीवन की समस्त क्रियायें किसी न किसी रूप में श्रावक की जीवन-शैली को परिमार्जित एवं पवित्र करती हैं। सर्वप्रथम जिस नगर में तीर्थङ्कर का गर्भ जन्मकल्याणक होता है, उसे रत्नवष्टि द्वारा श्रीसम्पन्न किया जाता है। तीर्थङ्कर की आत्मा को धारण करने वाली माता की शारीरिक शक्ति, विद्धि एवं पवित्रता के साथ वचनबल, वाक् चातुर्य, मानसिक शक्ति, श्रद्धा, आस्था एवं आन्तरिक आनन्द उत्साह से ओत-प्रोत हो जगत् जननी के गौरव से महिमामण्डित होती है। तीर्थङ्कर माता की सेवा में अष्टकुमारियां, छप्पनकुमारियां सदैव तत्पर रहकर मन, वचन एवं काम का शोधन अनेक विधियों से करके इस योग्य बनाती है कि वह तीर्थङ्कर आत्मा को अपनी कोख में धारण करने का सौभाग्य प्राप्त कर सके। ___ इसी प्रकार जिस पाषाण खण्ड से प्रतिमा का निर्माण किया जाना है, उसका शोधन विभिन्न क्वाथों से करते हैं। बिम्ब (मूर्ति) निर्माण करने वाला शिल्पी आगमोक्त चर्या, संयम, श्रद्धा, समर्पण, ब्रह्मचर्य पालन एवं निलोंभता से ही अतिशयकारी बिम्ब का निर्माण हो सकता है. जो इन्द्र-इन्द्राणी मन्त्र अनष्ठान की क्रिया-विधि में संलग्न होते है उनका बाह्य एवं आन्तरिक सरलीकरण करके शद्धि की जाती है। रात्रि भोजन त्याग, एकाशन, ब्रह्मचर्य पालन, श्रावकोचित चर्या का पालन करके आचरण शुद्धि करते हैं। तभी कल्याणक सार्थक होते हैं। _इस प्रकार गर्भ से निर्वाण तक के इन पञ्चकल्याणकों की आन्तरिक यात्रा गुणस्थान आरोहण प्रतिमा में मन्त्र ऊर्जा का आरोपण, प्राण-प्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र से अतिशय आरोपण अत्यन्त सूक्ष्म प्रक्रिया दर्शाने वाला अत्यन्त मंगलमय धार्मिक अनुष्ठान है, जिससे एक पाषाण भगवत् सत्ता पाकर पूजनीय बन जाता है। उसी प्रकार श्रावक संयम साधना, तप एवं त्याग के साथ गुणस्थान आरोहण करके मुनिधर्म का पालन कर कर्मक्षय करके अर्हन्त अवस्थापूर्वक निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।