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________________ आचार्य अमृतचन्द्र सूरि और उनका अवदान - डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल, अमलाई ईसा की प्रथम शताब्दी में आगम परगामी आ० धरसेन के शिष्य आचार्यद्वय पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने षटखण्डागम की रचना की, जो प्रथम श्रुत स्कन्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके बाद आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यात्म और तत्त्वज्ञान को सुरक्षित रखने हेतु समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, अष्टपाहुड आदि परमागम रूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना हुई। पश्चात् एक हजार वर्ष के अन्तराल में अनेक आचार्य हुए और अध्यात्म का प्रवाह निरन्तरित रहा। १०वीं शताब्दी में आचार्य अमृतचन्द सूरि हुए। उन्होंने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय आगम ग्रन्थों पर अध्यात्मपरक दार्शनिक टीकाएँ लिखीं। इन टीकाओं के साथ संस्कृत में पा भी लिखे। आपने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय आचारग्रन्थ, तत्त्वार्थसार नामक आगम ग्रन्थ एवं लघुतत्त्वस्फोट भक्तिपरक पा ग्रन्थ- ये रचनाएँ कर जैन-साहित्य को अद्भुत ग्रन्थ दिये। आप मूल संघ की नन्दिसंघी-परम्परा के आचार्य मान्य किये गये हैं। आप कुलीन द्यकुर परिवार से सम्बन्धित रहे। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि अद्भत प्रतिभा के धनी थे। वे अध्यात्मवादी अन्तरंग परिणति से थे, बाहर में निर्दोष महाव्रतों के पालन करने वाले अन्तर-बाह्य से निर्ग्रन्थ जिनमार्गी थे। समर्थ टीकाकार के साथ कवि भी थे। कुन्दकुन्द के द्वारा प्रतिपादित अकर्तावाद की भावना उनमें बहुत अधिक गहरायी से समाहित थी। दीक्षानाम के अतिरिक्त उनके ग्रन्थों में उनके माता-पिता, जन्मस्थल, दीक्षागुरु आदि लौकिक जीवन के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती। सर्वत्र उन्होंने अपने स्वरूप में तीन रहने की चर्चा की और रचनाओं को वर्ण, अक्षर, पद आदि कृत घोषित कर उनके कर्तृत्व से अपने को पृथक् रखा। निस्पृहता का यह चरम प्रमाण है जो जिनदीक्षा की सहज चर्या है। आत्मज्ञान, ध्यान और तप ही उनका परिचय है। ____ आचार्य अमृतचन्द्र सूरि की रचनाओं से परवर्ती आचार्य/विद्वान् बहुत गहरायी से प्रभावित हुए। सहस्रों भव्य जीवों ने शुद्धात्मा की उपलब्धि का मार्ग समझ कर अपना पैतृक धर्म का परित्याग करते हुए जिनेश्वरी मार्ग अपनाया। उनकी आध्यात्मिक क्रान्ति निरन्तरित है। भविष्य में भी वे आत्मार्थी जनों के प्रेरणा स्रोत, मार्गदर्शक बने रहेंगे। द्रव्य, गुण एवं पर्याय के सत् स्वरूप, उनकी स्वतन्त्रता-स्वाधीनता का उद्घोष कर सभी को 'स्वयम्भू' दर्शाते हुए शुद्धात्मा की उपलब्धि का जो सन्तुलित मोक्षमार्ग आचार्य अमृतचन्द्र ने उद्घाटित/व्याख्यायित किया उससे जिनशासन की प्रभावना को येस आधार मिला। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व स्वयं अलौकिक अवदान बन गया। 152 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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