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________________ आचार्य समन्तभद्र और उनका अवदान - डॉ. नेमिचन्द जैन, खुरई व्यक्तित्व आचार्य समन्तभद्र जैन वाङ्मय के प्रथम संस्कृत कवि एवं स्तुतिकार हैं। वे उद्भट दार्शनिक एवं श्रेष्ठ विचारक थे। उनको श्रुतधर आचार्य एवं सारस्वत आचार्यों की परम्पराओं को जोड़ने का श्रेय प्राप्त है। वे तार्किक मनीषी थे। उनके दार्शनिक रचनाओं पर आचार्य अकलंक और विद्यानन्द जैसे श्रेष्ठ आचार्यों ने टीकाएं एवं विवृत्तियां लिखकर श्रेष्ठ ग्रन्थकार का यश प्राप्त किया है। आचार्य समन्तभद्र ने स्तुतियों में जहाँ भक्ति तत्त्व का समावेश किया है वहीं दार्शनिक मान्यताओं को भी कुशलतापूर्वक समाविष्ट करते हुए उनका जैन-दर्शन के अनुसार समालोचन प्रस्तुत किया है। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में समन्तभद्र को वादि, बाग्मी कवि एवं गमकत्व आदि विशेषणों से अलङ्कृत किया है तथा कवि वेधा भी कहा है। आचार्य वादीभसिंह ने गद्यचिन्तामणि ग्रन्थ में समन्तभद्र की तार्कित प्रतिभा तथा शास्त्रार्थ की क्षमता का वर्णन किया है। श्री वर्धमानसूरि ने 'वाराङ्गचरित्र' में समन्तभद्र को महाकवीश्वर तथा सुतर्कशास्त्रामृतसागर विशेषण से सम्बोधित कर कवित्व शक्ति प्राप्ति की प्रार्थना की है। श्रवणबेलगोला के शिलालेख नम्बर 54, 105, 108 में एवं श्री शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में, अजितसेन के 'अलङ्कार चिन्तामणि' में समन्तभद्र को तेजस्वी विद्वान् प्रभावक दार्शनिक महावादी विजेता आदि के रूप में स्मरण किया है। जीवन-परिचय समन्तभद्र के ऊपर हुई खोजों के आधार पर यह तय हुआ है कि उनका जन्म दक्षिण भारत के उरगपुर (उरैपुर) के क्षत्रिय राजा के घर में हुआ था। उरैपुर को वर्तमान में 'त्रिचनापोली' नाम से जाना जाता है। स्तुतिविद्या अपर नाम जिनशतक में “गत्यैकस्तुतमेव' श्लोक में इनका नाम शान्तिवर्मा ज्ञात होता है। इनके पिता और माता का नाम आज तक खोज का विषय है। जीवन की घटनाएं समन्तभद्र एक सम्यक्दृष्टि जैन मुनि थे। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है “सम्यकदृष्टेः भवति नियतम् ज्ञान वैराग्य शक्तिः"। इसके अनुसार समन्तभद्र ज्ञान, वैराग्य-शक्ति सम्पन्न थे। ऐसा व्यक्ति जीवन में आयी हुई घटनाओं से घबराता नहीं है। इनके जीवन में इनको भष्मकव्याधि नामक रोग हो गया था। गुरु की आज्ञा से ये भष्मक व्याधि के निवारणार्थ भारत के कोने-कोने में घूमे। राजा शिवकोटि के मन्दिर में भष्मक व्याधि का शमन हुआ। राजा ने परीक्षा ली और वे परीक्षा में सफल हुए। जगह-जगह भ्रमण करने के कारण उन्हें विभिन्न धर्मावलम्बी दार्शनिकों से वाद-विवाद होने पर विजय प्राप्त हुई। ऐसे प्रकरण पट्टावलियों एवं राजवलि कथे आदि ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होते हैं। - 150 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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