________________ (2) पूर्दारणात्पुरन्दरः - नगरों का विभाग करने के कारण पुरन्दर। (3) शकनाच्छक्र— सामर्थ्यवान् होने के कारण शक्र। आचार्य वीरसेन ने धवलाटीका में शब्द के आधार से अनेक प्रकार के व्यभिचार अर्थात् दोष के निरूपण में लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह दोषों आदि का कथन किया है। लिंग दोष - स्त्रीलिंग के स्थान पर पुल्लिंग और पुल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना। यथातारका स्वाति- यहाँ तारका स्त्रीलिंगवाची है और स्वाति पुल्लिंगवाची है। अवगमो विद्या ...... अवगमो शब्द पुल्लिंग है और विद्या स्त्रीलिंग है। संख्या-दोष - एकत्वे द्वित्वं नक्षत्रं पुनर्वसु, एकत्वे बहुत्वं नक्षत्रं शतभिषज-द्वित्वे एकत्वं गोदा ग्राम इति। काल-दोष- भविष्यत्काल के स्थान पर भूतकाल, भूतकाल के स्थान पर भविष्यत्काल। यथाविश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता। कारक-दोष - एक साधन के स्थान पर दूसरे साधन/कारक का प्रयोग कारक दोष का व्यभिचार है। इसी तरह पुरुष-दोष (व्यभिचार) भी होता है। एदेसिं चेव चोद्दसण्हं - ये चौदह संज्ञाएं चौदह जीव समासरूप हैं। ऐसे सूत्र के माध्यम से अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक का कथन किया जाता है। 'तं जहाँ' सूत्र ने आगे कहे जाने वाले प्रसंग को प्रतिपादित किया है। यह धवलाटीका के सूत्र विवेचन का ही परिणाम है। 'सामान्ये नपुंसकं' यह भी उनका नपुंसक लिंग निर्देश करने का सूत्र है। आर्षवचन भी सूत्र कहे गये हैं। 'च' सद्द समुच्चयसूचक और इति शब्द गुणस्थानसूचक भी कहा गया। त्रसि उद्वेगे सूत्र ने भयभीत अर्थ को व्यक्त किया है। इस प्रकार षटखण्डागम के विश्लेषण पद्धति के अनेक सूत्र है। जो स्वतन्त्र व्याकरणात्मक ज्ञान को प्रस्तुत करते है। विस्तृत निबन्ध में इन्हीं सबका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। -143