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________________ षट्खण्डागम की धवलाटीका के व्याकरणात्मक नियम - डॉ. उदयचन्द्र जैन, उदयपुर आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि ने 'छक्खण्डागम' की शौरसेनी प्राकृत में जो रचना की उस पर आचार्य वीरसेन ने धवलाटीका के आधार पर सम्पूर्ण विषय का प्रतिपादन किया है। जीवस्थान, क्षुल्लकबंध, बंधस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध- इन छ: अधिकारों में जीवतत्त्व से लेकर कर्म-सिद्धान्त के सम्पूर्ण विषय का विवेचन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं अपितु यह आद्य, सूत्रात्मक-ग्रन्थ एक ऐसा ग्रन्थ है जिससे समस्त ग्रन्थियों का खुलासा होता है। __ आचार्य वीरसेन ने प्राकृत एवं संस्कृत दोनों में ही षटखण्डागम पर धवला नामक व्याख्या प्रस्तुत की है। यह व्याख्या प्राकृत-भाषा के सूत्रात्मक दृष्टिकोण को भी लिए हुए है। इसमें शौरसेनी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री आदि प्राकृतों का समावेश है, परन्तु इसमें टीकाकार ने प्रत्येक शब्द, पद आदि की विशेषताओं को स्पष्ट करने के लिए व्याकरणात्मक सूत्र भी दिये हैं। जैसे - “एदे छट्ट समासा', यह छह समान अर्थ वाले पद हैं। इसके प्रारम्भ में जो मंगलाचरण दिया है उसका व्याकरणात्मक विश्लेषण अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। सिद्धमणंतमणिंदियमणुवममप्पत्य सोक्खमणवज्जं केवल-पहोह-णिज्जिय-दुण्णय-तिमिरं जिणं णमह। सिद्ध- षिधु धातु, गमनार्थक या संधारण या सिद्ध अर्थ में प्रसिद्ध है। अनन्त- अन्त सीमावाचक है और अनन्त पदार्थों को जानने का भी बोध कराता है। इसी तरह प्रारम्भिक नवकारमन्त्र की व्याख्या में सूत्रात्मक दृष्टिकोण है, इसमें मंगल, निमित्त हेतु, परिमाण, नाम एवं कर्ता की दृष्टि से विवेचन किया है। एए छच्च-समाणा- अ आ इ ई उ ऊ- ये समान पद हैं। इन्हीं से संयोगाक्षर, लब्ध्यक्षर और निर्वृत्यक्षर के अनुसार वृद्धि, गुण आदि बनते हैं। इन्हें भी प्रामाणिक माना जाता है। इसलिए इनके प्रमाण पद, मध्यपद, वाक्यपद, भेदपद, अर्थ आदि की दृष्टि से विवेचन किया जाता है। धाउ-णिक्खेव-णय-एयत्थ-णिरुत्ति-अणियोग छरेहि ....... तत्थ धाऊ भू सत्तायां ...... तत्थ ‘मगि' इदि अणेण धाउणा। इत्यादि शब्द से पद, पद से अर्थ, अर्थ से निर्णय तक पहुंचने के लिए धातु, निक्षेप, नय, एकार्थ, निरुक्ति, अनुयोग, आदि को महत्त्व दिया जाता है। 'अणु' संज्ञा है। लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह आदि व्याकरणात्मक प्रयोग षटखण्डागम की विशेषता है। इसमें कारक के अनुसार जहाँ नय के दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया गया वहीं पर लिंग के अनुसार पद की व्याख्या की गयी। धातु के अनुसार शब्दों का विश्लेषण किया गया। यथा - (1) इन्दनादिन्द्रः - परमं ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र। -142
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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