________________ कसायपाहुड का दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है। अत: प्रसंगानुसार पेज्ज का अर्थ राग तथा दोस का अर्थ 'द्वेष' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार कषायों की 'राग-द्वेष' रूप परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं बंध-सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन विश्लेषण ही प्रस्तुत ग्रन्थ का वर्ण्यविषय होने से इस ग्रन्थ के नाम की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है। यह उल्लेख्य है कि आचार्य भद्रबाहु और लोहाचार्य के बाद की आचार्य-परम्परा मेंसंघनायक-आचार्य अर्हबलि (वीर निर्वाण संवत् 565) ने नन्दि, वीर, देव, सेन आदि अनेक संघों की स्थापना की थी। इनमें एक गुणधर नामक संघ भी बना था। इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि गुणधर एक विशाल संघ के प्रभावक आचार्य थे। जयधवलाकार आचार्य वीरसेन ने इन्हें 'वाचक' (पर्वविद) उपाधि से विभषित किया है। इन्हें अंग और पूर्वो का एकदेश ज्ञान आचार्य-परम्परा से प्राप्त हुआ था (तदो अंगपुव्वणमेगदेतो चेव आइरिय परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संप्पत्तो), जिसके आधार पर उन्होंने इस महान् ग्रन्थ की रचना की। __कसायपाहुड की रचनाशैली सुत्तगाहा (गाहासुत्त) के रूप में अतिसंक्षिप्त, बीजपदरूप, अनन्त अर्थगर्भित होने से इसका अर्थबोध सहजगम्य नहीं था, अत: आ. यतिवृषभ ने इस पर सर्वप्रथम चूर्णिसूत्रों की रचना की। इस आगमरूप सिद्धान्त ग्रन्थ की एक सौ अस्सी गाथाओं तथा आचार्य यतिवृषभ की 53 चूर्णि गाथाओं सहित 233 गाथाओं के रचयिता आचार्य गणधर ही माने जाते हैं। (जयधवला, भाग 1, पृ.१८३) इन गाहासत्तों को अनन्त अर्थ से गर्भित किया गया है- एदाओ अणंतत्थगब्भियाओ। इसीलिए इनके स्पष्टीकरण हेतु महाकम्मपयडि पाह पाहड के महान विशेषज्ञ आचार्य यतिवषभ ने इस पर छह हजार श्लोकप्रमाण चण्णिसत्तों की रचना की। आ. यतिवृषभ ने अपनी चूर्णि में अनेक अनुयोगों का व्याख्यान न करके “एवं णेदव्वं, भणिदव्वं" आदि कहकर व्याख्याताचार्यों के लिए संकेत किये हैं कि इसी प्रकार वे शेष अनुयोगों का परिज्ञान अपने शिष्यों को करावें। आ. यतिवृषभ के ऐसे सांकेतिक स्थलों और उनके चुण्णिसुत्तों के भी स्पष्टीकरण की जब आवश्यकता हुई तब 'उच्चारणाचार्य' ने बारह हजार श्लोक प्रमाण 'उच्चारणा' नामक वृत्ति का निर्माण किया। ___ इन सबके चुण्णिसुत्तों एवं उच्चारणावृत्ति के स्पष्टीकरण के लिए भी शामकुण्डाचार्य ने अड़तालीस हजार श्लोकप्रमाण ‘पद्धति' नामक टीका की विशेष रूप से रचना की। वीरसेनाचार्य के अनुसार- “सुत्तवृत्तिविवरणाए पद्धई" ववएसादो (जयधवला) अर्थात् जिसमें मूलसूत्र और उसकी वृत्ति का विवरण किया गया हो, उसे 'पद्धति' कहते हैं। आचार्य इन्द्रनन्दि के अनुसार यह पद्धति प्राकृत, संस्कृत और कर्नाटक भाषा में रची गयी टीका विशेष होती थी (प्राकृत संस्कृत कर्णाटक भाषया-पद्धतिः परारचिता-- श्रुतावतार, 164) / श्रुतावतार (पा 166, 173, 176) के अनुसार इस पद्धति के बाद तुम्बलूराचार्य ने षट्खण्डागम के आरम्भिक पांच खण्डों पर तथा कसायपाहुड पर कर्णाटकी भाषा में 84 हजार श्लोकप्रमाण 'चूड़ामणि' नामक बहुत विस्तृत व्याख्या लिखी थी। इस चूड़ामणि के बाद भी बप्पदेवाचार्य द्वारा भी इस ग्रन्थ पर कोई टीका लिखी गयी थी- ऐसा उल्लेख मिलता है; किन्तु इसके नाम और प्रमाण का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि इस समय शामकुण्डाचार्य रचित 'पद्धति' तुम्बलूराचार्य की चूड़ामणि और बप्पदेव की टीका-- जिन्हें हम सुरक्षित नहीं रख सके, अत: ये तीनों विशिष्ट टीकाएँ अब उपलब्ध नहीं है। -13- -