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________________ उसकी आत्मा के सम्पूर्ण विकारों और घातिया कर्मों का नाश हो जाता है और केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्ट्य प्रगट हो जाते हैं तथा वह सशरीर परमात्मा व सर्वज्ञ हो जाते हैं। ___ तीर्थङ्करों के गर्भ में आते ही उनकी माताओं को सोलह स्वप्न आते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि गर्भ में तीर्थङ्कर का ही जीव विकसित हो रहा है। उनके इन्द्रों एवं देव-देवियों एवं मनुष्यों द्वारा पञ्चकल्याणक मनाये जाते हैं। जैन-परम्परा में तीर्थङ्कर भगवान् के 34 अतिशय एवं 1008 लक्षण सुप्रसिद्ध हैं। ये सभी तीर्थङ्कर क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेते हैं। समवसरण की रचना- सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा तीर्थङ्करों के योग्य समवसरण की रचना की जाती है जहाँ पर सभी भव्य जीव स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी और देवी-देवता तीर्थङ्करों का उपदेश सुनने के लिए दिव्य ध्वनि खिरने की प्रतीक्षा करते हैं। समवसरण के मध्य गन्धकुटी में तीर्थङ्कर भगवान् विराजमान रहते हैं, और भव्य जीवों को हितकारी उपदेश देते हैं। दिव्यध्वनि- आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के दंसण-पाहुड ग्रन्थ के अनुसार तीर्थङ्कर केवली के बिना किसी चेष्टा के मेघगर्जना के समान अनक्षरात्मक ॐ ध्वनि खिरती है जो श्रोताओं के कर्ण में प्रवेश करते ही भाषा रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसमें मागध देवों के सन्निधान के साथ ही तीर्थङ्करों का अतिशय भी रहता ही है। तीर्थङ्करों की ध्वनि ऐसी स्वाभाविक शक्ति होती है जिससे वह अट्ठारह महाभाषाओं और सात सौ लघुभाषाओं में परिणत हो जाती है। गणधरों की उपस्थिति के बिना तीर्थङ्करों की दिव्य-ध्वनि नहीं खिरती। इसी धर्मचक्रप्रवर्तन को तीर्थ प्रवर्तन कहते हैं और उनके प्रवर्तक महापुरुषों को तीर्थङ्कर कहते है। जैन-परम्परा में वर्तमान काल के 24 तीर्थङ्करों में से वासुपूज्य, मल्लिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ एवं भगवान् महावीर अविवाहित एवं बाल ब्रह्मचारी थे, जिन्हें पञ्चबालयति के रूप में गौरव प्राप्त है। इसके साथ ही जम्बूद्वीप का चौथा क्षेत्र जो सुमेरु पर्वत द्वारा पूर्व और पश्चिम दो भागों में विभक्त है, के 5 मेरु सम्बन्धी 5 विदेहक्षेत्रों में बीस तीर्थङ्कर सदा विद्यमान रहते हैं। 24 तीर्थङ्करों के 24 शासनदेव व देवियों का वर्णन भी जैन-परम्परा में विद्यमान है। ये शासनदेव तीर्थङ्करों के समवसरण में सदा रहते हैं तथा सम्यक् दृष्टि होते हैं। जैनधर्मानुसार तीर्थङ्करों की यह महत्त्वपूर्ण परम्परा सदैव चलती रहेगी जिससे भव्य जीवों का कल्याण होता रहेगा।
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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