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________________ जैनधर्म में तीर्थङ्कर की अवधारणा और तीर्थङ्कर-परम्परा - डॉ. देवकुमार जैन, रायपुर जैनधर्म में तीर्थङ्कर होते हैं पर ईश्वर नहीं। वह संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष, धर्म तीर्थ के प्रवर्तक, पञ्चकल्याणकों से पूजित प्रत्येक कल्प (चतुर्थकाल) में 24 होते हैं। इस प्रकार त्रिकाल की अपेक्षा अनन्तानन्त तीर्थङ्कर भूतकाल में हो चुके हैं एवं भविष्य में भी होते रहेंगे। जैन-परम्परा के अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगत् में काल का चक्र सदा घूमा करता है। यद्यपि कालचक्र का प्रवाह अनादि और अनन्त है, तथापि जैन-परम्परा में उस कालचक्र के छ: विभाग हैं- सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा। सुख से दुःख की ओर जाने को अवसर्पिणी काल और दुःख से सुख की ओर जाने को उत्सर्पिणी काल कहते हैं। दोनों कालों की अवधि करोड़ों वर्षों से भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उ त्सर्पिणी काल के दुःख-सुख रूप भाग में चौबीस तीर्थङ्करों का जन्म होता है,जो जिन अवस्था को प्राप्त कर जैनधर्म का उपदेश देते हैं। इस समय हम अवसर्पिणी काल के पांचवें विभाग से गुजर रहे हैं। चूँकि चौं विभाग का अन्त हो चुका है इसलिए इस काल में अब कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा। इस युग के चौबीस तीर्थङ्करों में से भगवान् ऋषभदेव प्रथम और भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थङ्कर हैं। तीसरे काल विभाग में जब तीन वर्ष आठ माह ग्यारह दिन शेष रहे तब प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का निर्वाण हुआ और चौथे काल विभाग में जब उतना ही काल शेष रहा तब अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर का निर्वाण हुआ। दोनों का अन्तराल एक कोटा कोटि सागर (एक करोड़ गुणित एक करोड़) जैन पुराणों के अनुसार कल की सबसे बड़ी इकाई था। तीर्थङ्करों की जन्मभूमि - सैद्धान्तिक नियमानुसार भरतक्षेत्र के समस्त तीर्थङ्कर अयोध्या में ही जन्म लेते हैं इसलिए उसे शाश्वत तीर्थ कहा जाता है; किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल दोष के निमित्त से इस युग के चौबीसों तीर्थङ्कर अलग-अलग स्थानों में जन्में हैं। अत: 24 तीर्थङ्करों की कुल 16 जन्मभूमियाँ हैं। तीर्थङ्करों का जन्म नाम कर्म की पुण्य प्रकृति से होता है और इसका बंध सोलह कारण भावना भाने से होता है।ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में ही और यहां भी किसी तीर्थङ्कर अथवा केवली के पाद मूल में ही होना सम्भव है। - जैनधर्म में तीर्थङ्कर की अवधारणा - वीतराग, सर्वज्ञ और हितङ्कर के रूप में सर्वमान्य हैं। वीतरागता की अवस्था में राग, द्वेष और मोह का पूर्णत: अभाव हो जाता है। रागादि विकल्पों से रहित होकर वह सम्यक् दृष्टि भव्य जीव आत्मा में रमण करने लगता है तथा शुक्ल ध्यान, शुद्धोपयोग, उपेक्षा, संयम तथा निश्चय चारित्र के माध्यम से अन्तर्रात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। उसकी चेतना केवलज्ञान रूप शुद्ध चेतना हो जाती है। - -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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