________________ 4. उपन्यास ऐतिहासिक उपन्यासकार इतिहास और कल्पना का समन्वय करता है। वह इतिहास अथवा पौराणिक कथाओं या घटनाओं से जुड़े तथ्यों का संग्रह कर अपनी कल्पना द्वारा उन्हें अधिक आकर्षक, मनोरंजक, प्रभावशाली रूप में चित्रित करता है। आनन्द प्रकाश जैन, नीरज जैन जैसे विख्यात लेखकों ने इस विधा का उपयोग बाहुबली के व्यक्तित्व को चित्रित करने के लिए किया है। बाहुबली कथानक पर आधारित सबसे पहला उपन्या “तन से लिपटी बेल" आनन्द प्रकाश जैन द्वारा लिखा गया जो अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, दिल्ली से सन् 1970 में प्रकाशित हुआ। 5. ऐतिहासिक / शोधात्मक साहित्य बाहुबली की पौराणिक कथा के ऐतिहासिक तथ्यों को शिलालेखों और प्राचीन ग्रन्थों से खोजकर विद्वानों ने व्याख्यायित किया है। उनमें लक्ष्मीचन्द्र जैन, सतीश कुमार जैन, जस्टिस मांगीलाल जैन, नीरज जैन आदि विद्वानों का अच्छा योगदान है। 6. पूजा, गोमेटेश थुदि, स्तोत्र आदि साहित्य ___ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटेस थुदि प्राकृत में उपजाति वृत्त में लिखी जो माधुर्य और भक्ति रस से ओतप्रोत रचना है। इसमें 8 छन्द हैं जिनके अन्त में 'तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं' की टेक है। इसके अनेक गद्य-पद्यानुवाद हुए हैं। सर्वप्रथम गद्यानुवाद आचार्य विद्यानन्दजी का है जो 1979 ई. में जैन मठ श्रवण बेलगोल से प्रकाशित हुआ था। यह अनुवाद सरल, और सुबोध शैली में हुआ है। दूसरा अनुवाद डॉ. देवेन्द्र जैन का है जो उनकी अनुवाद कृति बाहुबलि आख्यान के अन्त में प्रकाशित हुआ है। बाहुबलि विषयक दिगम्बर - श्वेताम्बर-परम्परा उपर्युक्त साहित्यिक पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भ. बाहुबलि की लोकप्रियता जितनी दिगम्बर-परम्परा में है उतनी श्वेताम्बर-परम्परा में नहीं दिखायी देती। दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में भी कुछ अन्तर है। श्वेताम्बर-परम्परा भरत को अनासक्त कर्मयोगी मानता है जल में अलिप्त कमल के समान। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी वे अलिप्त रहे और उन्होंने उसी भव में ही कैवल्य प्राप्त किया, यह कल्पसूत्र की टीकाओं से पता चलता है। “मूर्छा परिग्रहः” की व्यावहारिकता चूंकि श्वेताम्बर-परम्परा का आदर्श है इसलिए भरत की अनासक्ति को अधिक मान्यता वहां मिली जबकि बाहुबली की वृत्ति अभिमान का प्रतीक मानी गयी। यही कारण है कि श्वेताम्बर मन्दिरों में बाहुबली की स्वतन्त्र प्रतिमाएं नहीं मिलती, भरत के साथ उनकी प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं। इसके विपरीत दिगम्बर-परम्परा में बाहुबली को जिन प्रतिमा के समान पूज्य माना गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि दिगम्बर-परम्परा कठोर साधना में विश्वास करती है और बाहुबली जैसी कठोर साधना का अन्य उदाहरण नहीं मिलता। यहाँ मन्दिरों में बाहुबली की प्रतिमाएं बहुत मिलती हैं, उतनी भरत की नहीं। भरत-बाहुबली की कथावृत्त दोनों परम्पराओं में सम्मान्य होने के बावजूद आचार्यों ने उसे अपनी-अपनी परम्परानुसार मोड़ देने का प्रयत्न किया है। ये अन्तर-बिन्दु इस विस्तृत निबन्ध में दृष्टव्य हैं।