________________ 170 क्षयोपशम भाव चर्चा सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् अनुचरणरूप पर्याय से परिणमन करता है। उस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव कहते हैं, किन्तु अध्यात्म की भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम, शुद्धोपयोग आदि पर्याय नाम उसके हैं।' (समयसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा 320) आगम और अध्यात्म के समन्वय को लिए हुए उक्त कथन इतना सुस्पष्ट है कि उसमें किसी प्रकार के सन्देह को कोई स्थान ही नहीं रहता; अतः जो विज्ञजन, सम्यक्त्व के विषय में आगम-विपरीत कल्पनाएँ करते हैं, वे वस्तुतः विज्ञ नहीं हैं। सात तत्त्वों की मोटी (स्थूल) श्रद्धारूप व्यवहार-सम्यक्त्व तो नकली है, उससे अनन्त संसार सान्त नहीं होता, वह तो अभव्य के भी होता है। जिस आत्मज्ञान के बिना निर्दोष, निरतिचार द्रव्यलिंग का धारी भी मुनि ग्रैवेयक पर्यन्त ही जाता है, वही आत्मज्ञान सम्यक्त्व का प्राण है, उससे विहीन सम्यक्त्व नहीं है, मिथ्यात्व ही है। ऐसे सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव ही वास्तव में चारित्र धारण करने का पात्र होता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है - मोह-तिमिराऽपहरणे, दर्शन-लाभादवाप्त-संज्ञानः। राग-द्वेष-निर्वृत्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः / / अर्थात् मोहरूपी अन्धकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से सम्यग्ज्ञान को प्राप्त साधु, राग-द्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को धारण करता है। अध्यात्म में क्रोध-मान-माया-लोभ को राग-द्वेष कहते हैं और मिथ्यात्व को मोह कहते हैं। जिसका मिथ्यात्वरूप मोह दूर हो जाता है, वही राग-द्वेष दूर करने के लिए चारित्र-धारण करने का अधिकारी होता है। ___एक शिक्षण शिविर में उसके अधिष्ठाता विद्वान् को उक्त श्लोक का उत्तरार्ध ही पढ़ते हुए सुनकर मुझे साश्चर्य खेद हुआ। आज चारित्र के प्रेमी चारित्र की बात तो करते हैं, किन्तु उसकी जड़ सम्यक्त्व की चर्चा से कतराते हैं। __जब जड़ (मूल) में अनन्तानुबन्धी कषाय बैठी हुई है, तब आगे की कषाय मात्र ऊपरी चारित्र धारण कर लेने से कैसे दूर या मन्द हो सकती है? उसी का यह