________________ नवम चर्चा : अकषाय भाव ही सच्चा धर्म 169 __ आगे वे पुरुष के संसारी रूप का चित्रण करते हुए बताते हैं कि वह कैसे संसारी बना हुआ है? वे लिखते हैं - वह चैतन्य-स्वरूप आत्मा, अनादि-परम्परा से निरन्तर ज्ञानादि गुणों के विकाररूप रागादि-परिणामों से परिणमन करता हआ, अपने रागादि परिणामों का कर्ता-भोक्ता होता है। ___ जब जीव, राग-द्वेष-मोहरूप परिणमता है, तब उन भावों का निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य ही कर्मरूप धारण करता है। इसी प्रकार जीव भी अपने चेतना-स्वरूप रागादि-परिणामों से स्वयं परिणमन करता है, तब पौदगलिक कर्म उसके निमित्तमात्र होते हैं। इस पुद्गल-कर्म में निमित्त मात्र रागादि-भाव हैं और रागादि-भाव में निमित्त पौद्गलिक-कर्म हैं। दोनों में मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है - ऐसा होते हुए भी आत्मा, अपने स्वभाव की अपेक्षा कर्मनिमित्तक भावों से जुदा चैतन्य मात्र वस्तु है। इस प्रकार के आत्मस्वरूप की श्रद्धा होने पर ही मिथ्यात्व हट कर, सम्यक्त्व प्रकट होता है, तभी मुक्ति का द्वार खुलता है और कषायों में मन्दता आना आरम्भ होता है। __ज्यों-ज्यों कषायों में क्षीणता आती जाती है, त्यों-त्यों आत्मस्वरूप की प्रतीति/अनुभूति होती जाती है और ज्यों-ज्यों आत्मस्वरूप की अनुभूति होती जाती है, त्यों-त्यों कषाय की मन्दता होती जाती है। ____ आत्मा की शुद्ध स्वरूपोपलब्धि का नाम मोक्ष है और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्र मोक्षमार्ग है। ये तीनों आत्मस्वरूप ही हैं। इसी से निश्चयनय से आत्मस्वरूप के विनिश्चय को सम्यग्दर्शन, आत्मा के परिज्ञान को सम्यग्ज्ञान और आत्मा में स्थिति को सम्यक्चारित्र कहा है। यह निश्चय मोक्षमार्ग, चतुर्थ गुणस्थान से ही प्रारम्भ होता है। आचार्य जयसेन ने समयसार की टीका में लिखा है - _ 'यदा काल-लब्धिवशेन भव्यत्व-शक्तिर्व्यक्तिर्भवति......शुद्धोपयोग इति पर्याय-संज्ञा लभते। ___अर्थात् जब काललब्धिवश भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भाव जिसका लक्षण है, उस अपने परमात्मद्रव्य के