________________ 130 क्षयोपशम भाव चर्चा प्रवचनसार, गाथा 72 णरणारयतिरियसुरा, भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं। किह सो सुहो व असुहो, उवओगो हवदि जीवाणं / / अर्थात् मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव, सभी यदि देहोत्पन्न दुःख को अनुभव करते हैं तो जीवों का वह (शुद्धोपयोग से विलक्षण अशुद्ध) उपयोग वास्तव में शुभ और अशुभ - ऐसे दो प्रकार का कैसे हो सकता है? (अर्थात् इस प्रकार दोनों में भेद सिद्ध नहीं होता।) यदि शुभोपयोगजन्य उदयगत पुण्य की सम्पत्ति वाले देवादिक और अशुभोपयोगजन्य उदयगत पाप की आपदा वाले नारकादिक - यह दोनों स्वाभाविक सुख के अभाव के कारण अविशेषरूप से (बिना अन्तर के) पंचेन्द्रियात्मक शरीर-संबंधी-दुःख का ही अनुभव करते हैं, तब फिर परमार्थ से शुभ और अशुभ उपयोग की पृथक्त्व व्यवस्था नहीं रहती। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 77 ण हि मण्णदि जो एवं, णत्थि विसेसो त्ति पुण्यपावाणं। हिंडदि घोरमपारं, संसारं मोहसंछण्णो।। अर्थात् इस प्रकार पुण्य और पाप में अन्तर नहीं है - ऐसा जो नहीं मानता, वह मोहाच्छादित होता हुआ, घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है। यों पूर्वोक्त प्रकार से शुभ-अशुभ उपयोग के द्वैत की भाँति और सुख-दुःख के द्वैत की भाँति परमार्थ से पुण्य-पाप का द्वैत नहीं टिकता, नहीं रहता; क्योंकि दोनों में अनात्मधर्मत्व (आत्मधर्म का अभाव) अविशेष अर्थात् समान है। (तत्त्वप्रदीपिका) ऐसा होने पर भी जो जीव, उन दोनों में, सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, अहमिन्द्र-पदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर, अत्यन्त निर्भररूप से अवलम्बित है; वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (मलिन, विकृत होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है - ऐसा वर्तता हुआ, संसार-पर्यन्त अर्थात् चिरकाल तक शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है।