________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग प्रवचनसार, गाथा 14 सुविदिदपयत्थसुत्तो, संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति / / अर्थात् जिन्होंने (निज शुद्ध आत्मादि) पदार्थों को और सूत्रों को भलीभाँति जान लिया है, जो संयम और तपयुक्त है, जो वीतराग अर्थात् रागरहित है और जिन्हें सुख-दुःख समान है - ऐसे श्रमण (मुनिवर) को शुद्धोपयोगी कहा गया है। प्रवचनसार, गाथा 69 देवदजदिगुरुपुजासु, चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो, सुहोवओगप्पगो अप्पा / / अर्थात् देव-गुरु-यति की पूजा में, दान में एवं सुशीलों में और उपवासादिक में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है। जब यह आत्मा, दुख की साधनभूत ऐसी द्वेष रूप तथा इन्द्रिय-विषय की अनुरागरूप अशुभोपयोग भूमिका का उल्लंघन करके देव-गुरु-यति की पूजा, दान, शील और उपवासादिक के प्रीतिस्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है; तब वह इन्द्रिय-सुख की साधनभूत शुभोपयोग की भूमिका में आरूढ़ कहलाता (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 70 जुत्तो सुहेण आदा, तिरिओ वा माणुसो व देवो वा। भूदो तावदि कालं, लहदि सुहं इन्दियं विविहं / / अर्थात् शुभोपयोगयुक्त आत्मा तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होकर, उतने समय तक विविध इन्द्रिय-सुख प्राप्त करता है। प्रवचनसार, गाथा 71 सोक्खं सहावसिद्धं, णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे। ते देहवेदणट्ठा, रमंति विसएसु रम्मेसु।। अर्थात् जिनेन्द्रदेव के उपदेश से सिद्ध है कि देवों के भी स्वभाव-सिद्ध सुख नहीं है; वे (पंचेन्द्रियमय) देह की वेदना से पीड़ित होने से रम्य विषयों में रमते हैं।