________________ / 206 ) जिह्वा' पर हैं / अगर पूछो कि क्यों पण्डित मोटेराम जी शास्त्री ! आपने इन विद्यानों को पढ़ा भी है ? इन विद्याओं का तो क्या रोनार, हमने कुछ भी नहीं पढ़ा / पूरे लण्ठ हैं, निरक्षर महान्, लेकिन फिर भी किसी बड़े से बड़े पुस्तक चाटू, शास्त्र घोंटू पण्डित का सामना करा दो, चपेट न हूँ तो मोटेराम नहीं / जी हां चपेटू, ऐसा चपेटूं, ऐसा रगेंहूँ कि पण्डित जी को भागने का रास्ता भी न मिले। पाठक कहेंगे यह असम्भव है। भला एक मर्ख प्रादमी पण्डितों को क्या रगे देगा ? मैं कहता हूँ प्रियवर ! पुस्तक चाटने से कोई विद्वान् नहीं हो जाता। पण्डितों के बीच में मुझे जीविका का डर नहीं रहता। ऐसा भिगो-भिगो कर लगाता हूँ-कभी दाहिने, कभी बायें चौंधिया देती हूँ, सांस नहीं लेने देता। संकेत-वहां मैं भी निमन्त्रण में गया था-तत्राहमपि केतितोऽगाम् (केतितो निमन्त्रितः)। वहां उनकी और मेरी जान पहिचान हुई-तत्रावयोमिथस्तत्प्रथमः परिचयोऽभत / लेकिन फिर भी.....'को रास्ता न मिले-तथापि यदि सतणाभ्यवहारिणा ग्रन्थिना धारिणा वा महतो महीयसा पण्डितेन संघर्षों मे जायते, तत्र च यदि न तन्निर्जयामि (न तमभिभवामि, न तं बाधे) तदा नाहमस्मि मोटेरामश्शास्त्री। बाढं तथा बाधेय तथा परिखिन्देयं (विप्रकुर्याम्) यथाऽसौ पण्डितप्रवेकः पलायितुमपि न लभेत / ऐसा भिगो-भिगो....."सांस नहीं लेने देता-तांश्च कदाचिद्दक्षिणे पार्वे कदाचित्सव्ये तथा तीव्रमाहन्मि यथा निष्प्रतिभानापादयामि दुर्लभोच्छवासांश्च / अभ्यास-५३ जी, बस इससे अधिक नहीं। हाँ ऐसे लोगों को जानता हूँ जो इसी अनुष्ठान के लिये 10 हजार ले लेंगे। लगेगा अढ़ाई तीन सौ, शेषरे अपने पेट में ठूस लेंगे। अब भी मुझे उल्लू फंसाने का अच्छा मौका था / कह सकता था 'सेठ जी, आपका काम तो छोटे अनुष्ठान से भी निकल सकता है। पर अगर आप कहें तो महा-महा मृत्युञ्जय पाठ व ब्रह्म प्रक्षक भी 1-1. रसनाग्रनतिन्यः, पास्ये मे लास्यं दधति / 2-2. अलमाभिः कीर्तिताभिविद्याभिः / 3-3. शेषं स्वयमेव निगलिष्यन्ति (शेषेण स्वमुदरं भरिष्यन्ति)। 4-4 निष्पत्त मर्हति (सेडुमर्हति) / 5-5. यदीच्छसि (यदि कामयसे)।