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________________ श्री जिनरात्री व्रत कथा [81 ******************************** इस समय राजा विशाखनंदि अपने महलोंमें बैठा यह सब दृश्य देख रहा था सो अविचारी, मुनिका अपहास करके कहने लगा कि सब बल अब कहां गया? इत्यादि। ___मुनिराज विशाखनंदी राजाके वचन सुनकर और अन्तराय हो जानेसे वनमें चले गये और उन्होंने निदान करके आयुको अन्तमें प्राण छोडकर दशवें स्वर्गमें देवपद प्राप्त किया। कुछ कालके बाद विशाखनंदि भी दीक्षा ले, तप कर दशवें स्वर्गमें देव हुआ। सो ये दोनों देव देवोचित सुख भोगने लगे और अन्त समय वहांसे चयकर विशाखभूतिका जीव, सौरम्यदेश पोदनपुर नगरीके प्रजापति राजाकी मृगावती रानीके गर्भसे विश्वनंदिका जीव दसवें स्वर्गके चयकर त्रिपृष्ठ नामका नारायण पदधारी पुत्र हुआ। रथनूपुरके राजा ज्वलनजटीकी प्रभावती नामकी कन्याके साथ नारायणका ब्याह हुआ। सो विशाखनंदिका जीव जो विजयाद्धगिरिका राजा अश्वग्रीव प्रति नारायण हआ था उक्त ब्याहका समाचार सुनकर बहत कुपित हआ। और बोला कि क्या ज्वलनजटीकी कन्या त्रिपृष्ठ जैसा रंक ब्याह कर सकता है? चलो, इस दुष्टको इसकी इस घृष्टताका फल चखावें। यह विचारकर तुरन्त ही ससैन्य त्रिपुष्ठ राजा (जो कि होनहार नारायण थे) पर जा चढा, और घोर संग्राम आरम्भ कर दिया जिससे पृथ्वी पर हाहाकार मच गया परंतु अन्यायका फल भी अच्छा नहीं हुआ, न होगा। अंतमें त्रिपृष्ठ नारायणकी ही विजय हुई और अश्वग्रीव अपने कियेका फल पाकर विशेष दुःख भोगनेको नर्कमें चला गया। क्या कोई किसीकी मांग या विवाहित स्त्रीको ले सकता है या लेकर सुखी हो सकता है।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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