________________ 7] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** - (16 श्री जिनरात्रि व्रत कथा) वदूं ऋषभ जिनेन्द्र पद, माथ नाय हित हेत। कथा कहूँ जिनरात्रि व्रत, अजर अमर पद देत॥ जब तीसरे कालका अन्त आया, तब क्रमसे कर्मभूमि प्रगट हुई और कल्पवृक्ष भी मन्द पड गये, ऐसे समयमें भोगभूमिके भोले जीव भूख प्यास आदि प्रकारके दु:खोंसे पीड़ित होने लगे। __ तब कर्मभूमिकी रितियां बतलाने वाले 14 कुलकर (मनु) उत्पन्न हुए। उन्हींमें से 14 वें मनु श्री नाभिराज हुए। नाभिराजके मरूदेवी नाम शुभलक्षणा रानी थी। इसके पूर्व पुण्योदयसे तीर्थंकर पदधारी पुत्र ऋषभनाथका जन्म हुआ। ये ऋषभनाथ प्रथम तीर्थंकर थे, इसीसे इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। __ आदिनाथने नन्दा, सुनन्दा नामकी दो स्त्रियोंसे ब्याह किया और उनसे भरत बाहुबली आदि 101 पुत्र तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दो कन्यायें हुई। सो ये कन्याएं कुमार कालहीमें दीक्षा लेकर तप करने लगी। इस प्रकार ऋषभदेवने बहुत काल तक राज्य किया। जब आयुका केवल चौरासीवां भाग अर्थात् 1 लाख पूर्व शेष रह गया, तब इन्द्रने प्रभुको वैराग्य निमित्त लगाया। अर्थात् एक नीलांजना नामकी अप्सरा जिसकी आयु अल्प समय (कुछ मिनिटों) ही रह गई थी, प्रभुके सन्मुख नृव्य करनेको भेज दी। सो नृत्य करते करते अप्सरा वहांसे विलुप्त हो गई और उसी क्षण उसी पलमें वैसी अप्सरा ही आकर नृत्य करने लगी।