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________________ 64] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** ___स्वामी! मैं ऋतुवती हूँ, कैसे आहार दूं। ईश्वरचंद्रने कहा कि गुपचुप रहो, हल्ला मत करो, गुरुजी मासोपवासी हैं इसलिये शीघ्र पारणा कराओ। ___चंदनाने पतिके वचनानुसार मुनिराजको आहार दे दिया सो श्री मुनिराज तो आहार करके वनमें चले गये और यहां तीन ही दिन पश्चात् इस गुप्त पापका उदय होनेसे पति पत्नी दोनों के शरीरमें गलित कृष्ट हो गया सो अत्यन्त दु:खी हुए और कष्टसे दिन बिताने लगे। ___एक दिन भाग्योदयसे श्रीभद्र मुनिराज संघ सहित उद्यानमें पधारे सो नगरके लोग वन्दनाको गये, और ईश्वरचंद्र भी अपनी भार्या सहवंदना को गया, सो भक्ति पूर्वक नमस्कार कर बैठा और धर्मोपदेश सुना पश्चात् पूछने लगा है दीनदयाल! हमारे यहां कौन पाप का उदय आया है कि जिससे यह विथा उत्पन्न हुई हैं। तब मुनिराजने कहातुमने गुप्त कपट कर पात्रदानके लोभसे अतिमुक्तक स्वामीको ऋतुवती होनेकी अवस्थामें भी आहार पान व मन, वचन, काय शुद्ध है कहकर आहार दिया है। अर्थात् तुमने अपवित्रता को भी पवित्र कहकर चारित्रका अपमान किया है सो इसी ____ यह सुनकर उक्त दम्पति (सेठ सेठानीने) अपने अज्ञान कृत्य पर बहुत पश्चाताप किया और पूछा___ प्रभु! अब कोई उपाय इस पापसे मुक्त होने का बताइये तब श्री गुरुने कहा-हे भद्र! सुनो-आश्विन वदी षष्ठी (गुजराती भादों वदी 6) को चारो प्रकारके आहारका त्याग करके उपवास धारण करो तथा जिनालयमें जाकर पंचामृतसे अभिषेक
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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