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________________ [61 श्री कोकिला पंचमी व्रत कथा ******************************** आयुकी उदीरणा कर मरी और कोकिला हुई है, सो उसी भवके वैरके कारण यह तुझे कष्ट पहुँचाती है। तब जिनमतीने कहा स्वामीजी! यह पाप कैसे छूट सकता है? * श्री मुनिराजने उत्तर दिया-बेटी! संसारमें कुछ भी कठिन नहीं है। यथार्थमें सब काम परिश्रमसे सरल हो जाते हैं। तुम अर्हतदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और दयामयी धर्म पर श्रद्धा रखकर, कोकिला पंचमी व्रत पालन करो तो निःसंदेह यह उपद्रव दूर हो जायगा। ____ इसके लिये तुम आषाढवदी पंचमीसे 5 मास तक प्रत्येक कृष्ण पक्षकी 5 को, इस प्रकार एक वर्षकी पांच पांच पंचमी पांच वर्ष तक करो। अर्थात् इन दिनोंमें प्रोषध धारण कर अभिषेकपूर्वक जिन पूजा करो और धर्मध्यानमें धारणा पारणा सहित सोलह प्रहर व्यतीत करो। सुपात्रोंमें भक्ति तथा दीन दुःखी जीवोंको करुणापूर्वक दान देवो, पश्चात् उद्यापन करो। पांच जिनबिंब पधराओ, पांच शास्त्र लिखाओ, पांच वर्णका पंचपरमेष्ठीका मण्डल मांडकर श्री जिनपूजा विधान करो। पांच प्रकारका पकवान बनाकर चार संघको भोजन कराओ। पांच गागर पांच प्रकारके मेघोंसे भरकर श्रावकोंको भेट दो। पांच ध्वजा चैत्यालयमें चढाओ, पांच चन्दोवा, पांच अछार, पांच छत्र, पांच चमर आदि पांच पांच उपकरण बनवाकर मंदिरमें भेंट चढाओ, विद्यालय बनवायो, श्राविका शालायें खोलो, रोगी जीवोंके रोग निवारणार्थ औषधालय नियत करो, इस प्रकार शक्ति प्रमाण चतुर्विध दानशालाएं खोलकर स्वपर हित करो, तथा श्रद्धासहित व्रत उपवास करो। - यह सुनकर जिनमतीने मुनिको नमस्कार करके व्रत लिया और उसकी सासु जो कोकिला हुई थी, उसने भी अपने
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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