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________________ श्री षोडशकारण व्रत कथा [31 / ******************************** करना आवश्यक है, ऐसा विचार करके निरन्तर विद्याभ्यास करना व कराना, सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नामकी भावना हैं। (5) इन संसारी जीवोंमेंसे प्रत्येक जीवके विषयानुरागता इतनी बढी हुई है कि कदाचित इसकी तीन लोककी समस्त सम्पत्ति भोगनेको मिल जाये तो भी उसकी इच्छाके असंख्यातवें भागकी पूर्ति न हो, सो जीव संसारमें अनन्तानन्त हैं, और लोकके पदार्थ जितने है उतने ही हैं सो जब सभी जीवोंकी अभिलाषा एसी ही बढी हुई है। तब यह लोककी सामग्री किस किसको कितने कितने अंशोंमें पूर्ति कर सकती है? अर्थात् किसीको नहीं। ऐसा विचार कर उत्तम पुरुष अपनी इन्द्रियोंको विषयोंसे रोककर मनको धर्मध्यानमें लगा देते हैं। इसीको संवेग भावना कहते है। (6) जबतक मनुष्य किसी भी पदार्थमें ममत्व अर्थात् यह वस्तु मेरी है ऐसा भाव रखता हैं तब तक यह कभी सुखी नहीं हो सकता है क्योंकि पदार्थोका स्वभाव नाशवान हैं, जो उत्पन्न हुए सो नियमसे नाश होंगे, और जो मिले हैं, सो विछुडेंगे इसलिये जो कोई इन पदार्थोको (जो इसे पूर्व पुण्योदयसे प्राप्त हुए हैं) अपने आपही इसको छोड जानेसे पहिले ही छोड देवे, ताकि वे (पदार्थ) उसे न छोड़ने पावें, तो निसन्देह दुःख आनेका अवसर ही न आवेगा ऐसा विचार करके जो आहार, औषध, : शास्त्र (विद्या) और अभय इन चार प्रकारके दानोंको मुनि, आर्जिका, श्रावक, श्राविकाओं (चार संघों) में भक्तिसे तथा दीन दुःखी नर पशुओंका करुणाभावोंसे देता है तथा अन्य यथावश्यक कार्यो (धर्मप्रभावना व परोपकार) में द्रव्य खर्च करता है उसे ही दान या शक्तितस्त्याग नामकी भावना कहते हैं।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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