________________ श्री अक्षयतृतीया व्रत कथा [149 ******************************** विद्याधरने जवाब दिया कि इस अवसर्पिणीकालमें अयोध्या नगरीमें पहिले नाभिराय नामके अंतिम मनु हुए। उनके मरुदेवी नामकी पट्टराणी थी। राणीके गर्भ में जब प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवोंने बड़े ठाठसे मनाया और जन्म होनेपर जन्म कल्याणक मनाया। फिर दीक्षा कल्याणक होनेके बाद आदिनाथजीने छ: मास तक घोर तपस्या की। छ: माहके बाद चर्या (आहार) विधिके लिए आदिनाथ भगवानने अनेक ग्रामके नगर शहरमें विहार किया किंतु जनता व राजलोगोंको आहारकी विधि मालूम न होनेके कारण भगवानको धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु भेंट की। भगवानके यह सब अंतरायका कारण जानकर पुनः वनमें पहुँच छ: माहकी तपश्चरण योग धारण कर लिया। अवधि पूर्ण होनेके बाद पारणा करनेके लिये चर्या मार्गसे इर्यापथ शुद्ध करते हुए ग्राम नगरमें भ्रमण करते करते कुरुजांगल नामक देशमें पधारे। वहां हस्तिनापुर नामके नगरमें कुरुवंशका शिरोमणि महाराजा सोम राज्य करते थे। उनके श्रेयांस नामका एक भाई था उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थानसे चयकर यहां जन्म लिया था। एक दिन रात्रिके समय सोते हुए उसे रात्रिके आखिरी भागमें कुछ स्वप्न आये। उन स्वप्नोंमें मंदिर, कल्पवृक्ष सिंह, वृषभ, चंद्र, सूर्य, समुद्र, आग, मंगल, द्रव्य यह अपने राजमहलके समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्नमें देखा तदनंतर प्रभातवेलामें उठकर उक्त स्वप्न अपने ज्येष्ठ भ्रातासे कहा-तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभने अपने विद्वान पुरोहितको बुलाकर स्वप्नोंका फल पूछा। पुरोहितने जवाब दिया हे राजन्! आपके घर श्री आदिनाथ भगवान पारणाके लिये पधारेंगे, इससे सबको आनंद हुआ।