SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री पुष्पांजलि व्रत कथा [127 ******************************** मदनमंजूषा भी दर्शनार्थ सखियों सहित वहां आई, और रत्नशेखरको देखकर मोहित हो गई, परंतु लज्जावश कुछ कह न सकी, और खेदितचित्त होकर घर लौट गई। राजा रानीने उसके खेदका कारण जानकर स्वयंवर मण्डप रचा, और सब राजपुत्रोंको आमंत्रण दिया, सो शुभ तिथिमें बहुतसे राजपुत्र वहाँ आये, उनमें चंद्रशेखर भी आया। जब कन्या वरमाला लेकर आई तो उसने रत्नशेखरके ही कण्ठमें यह वरमाला डाली। इसपर विद्याधर राजा बहुत बिगडे कि यह विद्याधरकी कन्या है भूमिगौचरीको नहीं ब्याह सकती हैं, परंतु रत्नशेखरने उनको युद्धके लिये तत्पर देख सबको थोडी देरमें जीतकर यथास्थान बिदा कर दिया। इनका पराक्रम देखकर बहुतसे राजा इनके आज्ञाकारी हुए, और वहीं इनको, शुभोदयसे चक्ररत्नकी प्राप्ति भी हुई, तब छहों खण्डोंको वश करके वे कुमार चक्रवर्ती पदसे भूषित होकर निज नगरमें आये और पितादि गुरुजनोसे मिलकर आनंदसे राज्य करने लगे। ___ एकदिन राजा रत्नशेखर मातापिता सहित सुदर्शनमेरूकी वन्दनाको गये थे तो बडे भाग्योदयसे दो चारण मुनियोंको देखकर भक्तिपूर्वक वन्दना-स्तुति कर धर्मोपदेश सुना और अवसर पाकर अपने भवांतरोंका कथन पूछा तथा यह भी पूछा कि मदनमंजूषा और मेघवाहनका मुझपर अत्यंत प्रेम था? तब श्री मुनिने कहा-राजा सुनो! इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र आर्यखण्डमें मृणालपुर नामका एक नगर है, वहां राजा जितार और कनकावती सुखसे राज्य करते थे। इसी नगरमें श्रुतिकीर्ति नामका ब्राह्मण और उसकी बन्धुमती नामकी स्त्री रहती थी।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy