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________________ श्री अष्टान्हिका नन्दीश्वर व्रत कथा . [115 ******************************** (24Y श्री अष्टान्हिका नन्दीश्वर व्रत कथा) वन्दों पांचों परमगुरु, चौबीसो जिनराज। अष्टाह्निका व्रतकी कहूं, कथा सबहि सुखकाज॥ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखण्डमें अयोध्या नामका एक सुन्दर नगर है। वहां हरिषेण नामका चक्रवर्ती राजा अपनी गन्धर्वश्री नामकी पट्टरानी सहित न्यायपूर्वक राज्य करता था एक दिन वसंतऋतुमें राजा नगरजनों तथा अपनी 96000 रानियों सहित वनक्रीडाके लिए गया। ___वहां निरापद स्थानमें एक स्फटिक शिलापर अत्यन्त क्षीणशरीरी महातपस्वी परम दिगम्बर अरिंजय और अमितंजय नामके चारण मुनियोंको ध्यानरूढ देखें। सो राजा भक्तिपूर्वक निज वाहनसे उतरकर पट्टरानी आदि समस्तजनों सहित श्री मुनियोंके निकट बैठ गया और सविनय नमस्कार कर धर्मका स्वरूप सुननेकी अभिलाषा प्रगट करता हुआ। मुनिराज जब ध्यान कर चूके तो धर्मवृद्धि दी, और पश्चात् धर्मोपदेश करने लगे। ___मुनिराज बोले-राजा! सुनो, संसारमें कितनेक लोग गंगादि नदियोंमें नहानेको, कोई कन्दमूलादि भक्षणको, कोई पर्वतसे पडनेमें, कोई गयामें श्राद्धादि पिंडदान करनेमें, कोई ब्रह्मा, विष्णु शिवादिककी पूजा करनेमें, कालभैरों, भवानी काली आदि दैषियोंकी उपासनामें धर्म मानते हैं अथवा नवग्रहादिकोंके जप कराने और मस्तसाँडों सदृश कुतपस्वियों आदिको दान देने में कल्याण होना समझते हैं, परंतु यह सब धर्म नहीं है और न इससे आत्महित होता है, किन्तु फेवल मिध्यावधी वृद्धि होकर अनन्त संसारका कारण बन्ध ही होता है।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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