________________ 110] ******************************** महान शास्त्र लिखाकर जिनालयमें पधरावे कलश, छत्र, चमर, झारी, दर्पण आदि अष्टमंगल द्रव्य तथा अन्य आवश्यक उपकरण मंदिरमें भेंट देवे, चार प्रकारके संघको भक्तियुक्त तथा दीन दुःखियोंको करुणाभावसे चारों प्रकारके दान देवे। जिसे उद्यापनकी शक्ति न होवे तो दूना व्रत करना चाहिए। इस प्रकार व्रतकी विधि कहकर श्री गुरुने कहा-हे राजा! तुम्हारी पुत्री शीलावतीके अर्ककेतु और चंद्रकेतु नामके दो पुत्र होंगे। इनमेंसे अर्ककेतु निज बाहुबलसे संग्राममें अनेक राजाओंको जीतकर प्रख्यात राजा होगा, पश्चात् संसार भोगोंसे विरक्त हो जिनदीक्षा लेकर परम तप करेगा। उसके साथ उसकी माता शीलावती भी दीक्षा लेगी और आयुके अंतमें समाधिमरण कर स्त्रीलिंग छेदकर बारहवें स्वर्गमें देव होगी। वहांसे आकर छत्रपति राजा होगी। फिर दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष जावेगी। अर्ककेतु और चंद्रकेतु भी मोक्ष जावेंगे। यह समाचार सुनकर राजाने मुनिको नमस्कार किया और श्रद्धापूर्वक व्रतकी विधि सुनकर घर आया। फिर मुनिराजके कहे प्रमाण व्रत पालन तथा उद्यापन विधिपूर्वक किया जिससे भवांतरोंके पापोंका नाश हुआ। इस प्रकार द्वादशीके प्रतका महात्म्य है। जो कोई भव्य जीव श्रद्धा और भक्तियुक्त यह व्रत करेंगे और कथा सुनेंगे उनको अक्षयपुण्य और सुख की प्राति होगी। इस प्रकार द्वादशी कथा, पूरण भई सुखकार। व्रत्तफल शीलवती लियो, अक्षय सुख भण्डार।