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________________ 106] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** पांच पांच लाकर जिनालयमें भेंट देवें और समादान (दीवी) घण्टा, पानीके लिये घडा, झारी मंदिरमें पधरावे व अष्ट द्रव्यसे भाव सहित अभिषेकपूर्वक पूजन करे। पांच श्रावक तथा श्राविकाओं को भोजन करावे तथा दु:खित भूखितको करुणाबुद्धिसे आहारादि चारों प्रकारके दान देवें। चारित्रमतीने नमस्कार कर उक्त व्रत ग्रहण किया। पश्चात् गुरुने कहा-पुत्री! यह व्रत तू अपने पीहर (पितृगृह) में जाकर करना और गन्धोदक अपने पिताके गलेमें लगाना, इससे वह मूर्छ रहित हो जायगा। और श्रावण सुदी 5 के दूसरे दिन श्रावण सुदी 6 को नेमिनाथस्वामीका व्रत है सो उस दिन अर्हन्त भगवानके छ : अष्टक और छ: माला जपना, पूजन अभिषेक करना, हवन करना, और पूजनादिके पश्चात् ककडी नारियल शुभ फल प्रत्येक छः छः सौभाग्यवती स्त्रियोंको देना। पश्चात् इसका भी उद्यापन करना अथवा दूना व्रत करना। इस प्रकार दोनों व्रत ग्रहण कर चारित्रमती अपने पिताके घर गई और यथाविधि व्रत पालन किया तथा अपने पिताको गन्धोदक लगाया जिससे वह मूर्छा रहित हो स्वस्थ हो गया। __यह चर्चा सब नगरमें फैल गई और इस प्रकार यह गरुड (नाग) पंचमी व्रतका प्रचार संसारमें हुआ। .. कुछ दिन बाद चारित्रमती घर (श्वसुर गृह) जाने लगी परंतु पिताके आग्रहसे और ठहर गई। एक दिन वह चारित्रमति अपने पिताके खेतमें निर्मल सरोवर पर जाकर पूजा करने लगी। इस बीचमें वे ही मुनिराज, जिन्होंने व्रत दिया था, वहां भ्रमण करते हुए आ पहुंचे।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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