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________________ श्री गरुड़ पंचमी व्रत कथा [103 ******************************** ही शुक्लध्यानको धारणकर आत्मामें निमग्न हो गये तब सिंह भी उपशांत होकर वहांसे चला गया और वे मुनि अंतकृत. केवली होकर सिद्धपदको प्राप्त हुए और सिंह मुनिहत्याके कारण मरकर नरकमें घोर दु:ख भोगनेको चला गया। प्राणी निःसंदेह अपने ही किये हुए शुभाशुभ कर्मोका फल सुख व दु:ख भोगा करते हैं। इस प्रकार एक दरिद्रा कन्याने भी मौन एकादशी व्रत श्रद्धा व भक्तिपूर्वक पालन किया जिससे फलसे वह सुकौशल स्वामी होकर सकल कर्मोका क्षय कर सिद्धपदको प्राप्त हुई। तो और जो कोई भव्यजीव ज्ञान व श्रद्धापूर्वक यह व्रत करे तो अवश्य ही उत्तमोत्तम सुखोंको पावेंगे। तुंगभद्र कन्या कियो, मौन व्रत चित धार। पायो अविचल सिद्ध पद, किये काम सब छार॥ (214 श्री गरुड पंचमी व्रत कथा) वीतराग पद वंदके, गुरु निर्ग्रन्थ मनाय। ... गरुडपंचमी व्रत कथा, कहूं सबहि सुखदाय॥ जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण दिशामें रत्नपुर नामका नगर है। वहां गरुड नामका विद्याधर राजा अपनी गरुडा नामकी रानी सहित सानंद राज्य करता था। वह राजा अति श्रद्धा और भक्तिपूर्वक सदैव अकृत्रिम चैत्यालयोंकी पूजा वंदना करता था। एक दिन मार्गमें इसके पूर्वभवके वैरीने अपना बदला लेने के हेतु इसकी विद्या छीन ली और इसे भूमिपर गिरा दिया।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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