SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 100] और विशेष बानाय! मेरा पुत्र और राज्यभविष्यमें र श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ** *** ***** ** **** ** *** ***** ** *** * प्रतिमारूप श्रावकका धर्म ही धारण करे। और निरन्तर अपने भावोंको बढाता और शरीरादि इन्द्रियों तथा मनको वश करता जावे, तब ही अभीष्ट सुखको प्राप्त हो सकता है। श्रावक धर्म केवल अभ्यास ही के लिये है। इसलिये इसीमें रंजायमान होकर इति नहीं कर देना चाहिए। किन्तु मुनिधर्मको भावना भाते हुए उसके लिये तत्पर रहना चाहिए। - राजाने उपदेश सुन स्वशक्ति अनुसार व्रत धारण किया और विशेष बातोंका श्रद्धान किया। पश्चात् अवसर देखकर पूछने लगे-हे नाथ! मेरा पुत्र विद्यादिमें निपुण होने पर भी बालक्रीडाओंमें अनुरक्त रहता हैं और राज्यभोगमें कुछ भी नहीं समझता है। अतः इसकी चिंता है कि भविष्यमें राज्यस्थिति कैसे रहेगी? राजाका प्रश्न सुनकर श्री गुरुने कहा-इसी देशके कूट नाम नगरमें राजा रणवीरसिंह और उसकी त्रिलोचना नामकी रानी थी। इसी नगरमें एक कुणबी रहता था। उसकी पुत्री तुंगभद्रा थी। इस भाग्यहीन कन्याके पापोदयसे शैशव अवस्थामें ही माता पिता आदि बन्धु बांधव सब कालवश हो गये और यह अनाथिनी अकेली अन्न वस्त्रसे वंचित हुई, जुठन पर गुजार करती समय बिताने लगी। वह जब आठ वर्षकी हुई, एक दिन घास काटनेको वनमें गई थी वहां पिहताश्रव मुनिराजके दर्शन हो गये। वह बालिका भी लोगोंके साथ श्री गुरुको नमस्कार करके धर्मश्रवण करने लगी, परंतु भूखकी वेदनासे व्याकुल हुई। ___ इसके कुछ भी समझमें नहीं आता था, तब इस दुःखित कन्याने दुःखसे कातर होकर पूछा-हे दयानिधान गुरुदेव! मैं
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy