SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास पंचबीस क्रियाओं के अनुसार अनेक भेद हैं उनके तीव्र, मन्द, ज्ञात एंव अज्ञात परिणामों के आधार पर ही जीव सुख-दुःख प्राप्त करते हैं। जीव एंव अजीव दोनों ही द्रव्य आस्त्रव के आधीन हैं। चरितकाव्यों से जीवद्रव्य के अधिकार से आस्त्रव तत्व के 108 भेद एंव 432 उत्तरभेद एंव अजीवद्रव्य के अधिकार से 4 भेदों की जानकारी होती है। दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मो के विभिन्न कर्मास्त्रवों एंव कर्मास्त्रवों के अनुसार चतुर्गति प्राप्त होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।६६ | 5 संवर द्रव्य नये कर्मो का जीव में न आना ही संवर है३७० | भाव एंव द्रव्य के भेद से संवर द्रव्य दो प्रकार का है३७१। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एंव योग से आत्मा को पूर्णरुपेण पृथक करने को भाव संवर कहते हैं। जैनधर्म एंव दर्शन में वर्णित समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जन्य, चारित्र आदि भाव संवर के प्रमुख साधन हैं। ___ जीव को पूर्व संचित कर्मो से पृथक होने के साथ ही नये कर्मो के बन्ध से दूर रहने के उपदेशों की जानकारी होती है। नवीन कर्मो से आत्मा को मुक्त करना ही द्रव्य संवर है। 6 निर्जरा द्रव्य जिस तरह जीव में प्रत्येक समय नये कर्मो का आस्त्रव होता है उसी तरह प्रतिक्षण पहले बंधे हुये कर्मो की निर्जरा भी होती है क्योंकि जो कर्म अपना फल देते जाते हैं वे नष्ट होते जाते हैं। निर्जरा द्रव्य के दो प्रकार हैं३७२ -- संविपाक एंव अविपाक। जब एक ओर नये कर्मो के आस्त्रव को रोक दिया जाता है एंव दूसरी और पहले को हुए कर्मोस अलग कर दिया जाता है तब इसे संविपाक अथवा संवरपूर्वक नर्जरा ..हैं। जब एक और नये कर्मो केव को रोक दिया जाता है एंव दूसरी और पहले बंधे हुए कर्मो को जीव से अलग कर दिया जाता है तब इसे संविपाक अथवा संवरपूर्वक निर्जरा कहते हैं। जब केवल पूर्व बंधे हुए कर्मो से जीव को अलग कर दिया जाता है उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं लेकिन इस निर्जरा से कर्मबन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता क्योंकि प्रत्येक समय नये कर्मों का आस्त्रव होता रहता है।
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy