SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरितकाव्य 143 एक गति से दूसरी गति एंव सुख-दुःख को प्राप्त करता है६० / इन कर्मो से पृथक शुद्धावस्था ही मोक्ष गति को प्राप्त कराती है। कर्मबन्ध के चार प्रकार - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एंव प्रदेश हैं३६२ / वस्तु के स्वभाव को प्रकृति कहा जाता है। कर्म परमाणुओं में जिस प्रकार की परिणाम उत्पादक शक्तियाँ आती हैं उसी के अनुरुप कर्म प्रकृतियाँ निश्चित होती है। प्रकृति बन्ध से कषायात्मक प्रवृत्तियों एंव कर्म के आठ प्रकारों की जानकारी होती है।६३ / आत्मप्रदेशों के मध्य कर्मो में कषायों की तीव्रता एंव मन्दता के अनुसार निश्चित काल तक जीव के साथ रहने की शक्ति होती है उसे स्थिति बन्ध कहते हैं। चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि जीव के कर्मो के अनुसार यह स्थिति तीन प्रकार की होती है३६४ -- जधन्य, मध्यम एंव उत्कृष्ट / चरितकाव्यों से आठों कर्मो की जधन्य एंव उत्कृष्ट की जानकारी होती है३६५ | कर्म प्रकृतियों में स्थिति बन्ध के साथ-साथ जो तीव्र या मन्द सुख-दुःख प्रदायिनी शक्ति भी उत्पन्न होती है उसको ही अनुभाग बन्ध कहा गया है। अनुभाग बन्ध जीवों के भावों के अनुसार उत्पन्न होता है३६६ | कषायात्मक प्रवृत्तियों द्वारा आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपरमाणुओं के सम्बन्ध होने को प्रदेश बन्ध कहा जाता है। इन कर्म परमाणुओं की संख्या अनन्त है जिनका विभाजन कर्म की आठ मूल प्रकृतियों में होता है३६७ | आस्त्रव द्रव्य चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि मन, वचन एंव काय योग (क्रियाओं के संचालन) द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पन्दन होता है जिससे आत्मा में ऐसी एक अवस्था उत्पन्न होती है कि आस पास स्थित सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल परिमाणु आत्मा के समीप आ जाते हैं। आत्मा एंव पुद्गल परिमाणुओं का मिलन ही आस्त्रव है। आस्त्रव के शुभास्त्रव एंव अशुभास्त्रव दो भेद है६८ | शुभास्त्रव क्रोध, लोभ, मान, माया आदि कषायों से रहित शुद्ध एंव पुण्यात्मक क्रियाओं युक्त होता है। इससे आत्मा एंव कर्मप्रदेशों का कोई स्थिर बन्ध उत्पन्न नहीं होता है। मन वचन एंव काय से प्रतिक्षण क्रिया होने के कारण यह समस्त सांसारिक एंव चेतन प्राणियों में पाया जाता है लेकिन आत्मा पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता। अशुभास्त्रव कषायों से युक्त अशुद्ध एंव पापात्मक होता है। इनसे आत्मप्रदेशों में पर पदार्थ ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होने के कारण आत्मा को बिना प्रभावित किये पृथक् नहीं होता है। अशुभास्त्रव के चार कषाओं, पांचेन्द्रियों, अविरति एंव
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy