________________ 210 ज्ञानानन्द श्रावकाचार कहीं मध्य लोक के धर्मात्मा स्त्री-पुरुषों की प्रशंसा की जा रही है / ऐसे जिन-मंदिर में संख्यात अथवा असंख्यातों देव-देवांगनायें दर्शन करने के लिये आते हैं तथा दर्शन कर वापस चले जाते हैं / उनकी महिमा वचन अगोचर हैं, देखते ही बनती है / अतः ऐसे जिनदेव को हमारा नमस्कार हो। बहुत अधिक कहने से पूर्णता (बस) हो। जिनबिंब और कैसे हैं? मानों बोल रहे हों अथवा मुस्करा रहे हों, अथवा हंस रहे हों अथवा स्वभाव में स्थित हों, मानों ये साक्षात् तीर्थंकर ही हैं / जिनबिंब के शरीर के अंग-उपांग नख से शिखा तक के पुद्गल स्कंध तीर्थंकर के शरीर के समान ही हैं / हाथ-पांव, मस्तक आदि सर्वांग वर्ण, गुण, लक्षण मय स्वयमेव अनादि निधन परिणमित होते हैं, अत: तीर्थंकर के सदृश्य हैं, पर अन्तर इतना है कि तीर्थंकर महाराज के शरीर में केवलज्ञानमय लोकालोक का ज्ञायक आत्म द्रव्य अनन्त चतुष्टय मंडित विराजमान है, जो (यह आत्म द्रव्य) जिनबिम्ब में नहीं है। ___ प्रतिमाजी के दर्शन का फल :- जिनबिम्ब का दर्शन करते ही मिथ्यात्व का नाश होता है तथा निज स्वरूप की प्राप्ति होती है / ऐसे जिनबिम्ब को वे देव पूजते हैं, मैं भी पूजता हूं तथा अन्य भव्य जीव भी पूजा करें / एक (व्यवहार) नय से तीर्थंकरों के पूजन तथा जिनबिम्ब के पूजन से बहुत फल होता है, किस भांति ? वह कहते हैं - ___ जैसे कोई पुरुष राजा की छवि को पूजता है, जब वह राजा विदेश से आता है तो उस पुरुष पर बहुत प्रसन्न होता है तथा विचार करता है कि यह मेरी छवि की ही पूजा करता है तो मेरी पूजा तो करेगा ही करेगा, अतः ऐसी भक्ति जानकर बहुत प्रसन्न होता है / इसप्रकार प्रतिमाजी के पूजन में अनुराग होने से यह सूचित होता है कि फल तो एक परिणामों की शुद्धता का ही है। परिणाम होते हैं वे कारण के निमित्त से होते हैं, जैसा कारण मिलता है वैसा ही कार्य होता है। नि:कषाय पुरुष के निमित्त से पूर्व की कषायें भी