________________ 186 ज्ञानानन्द श्रावकाचार यह मोह कर्म कैसा है ? लोक के समस्त जीवों को अपने पौरुष से समस्त जीवों की समस्त ज्ञानानन्द, पराक्रम आदि स्वाभाविक निधिलक्ष्मी को छीनकर शक्ति हीन कर जेल में डाल दिया है / कईयों को तो एकेन्द्रिय पर्याय में डाला है, जिनके लिये सुना है कि वे घोर दुःख पाते हैं / उनके दुःख का स्वरूप (की हालत) तो ज्ञानी जीवों को भासित होता है, पर वचनों में कहा नहीं जा सकता है / कई जीवों को दो इन्द्रिय पर्याय में महा दु:ख दिये जिनके दुःख प्रत्यक्ष इन्द्रिय गोचर हैं, तथा आपने सिद्धान्त में निरूपण भी किया है, आपके वचनों को अनुमान प्रमाण से सत्य जाना है। ___ बहुत जीव नरकों में पडे-पडे बहुत तडपते हैं, रोते हैं, हाय-हाय करते हैं, वे तो अन्यों को मारते हैं तथा अन्यों द्वारा उन्हें मारा जाता हैं। वहां छेदन-भेदन-मारण-ताडण-शूलीरोपण, इन पांच प्रकार के दु:खों से अत्यन्त पीडित हैं तथा भूमि की असहय वेदना से परम आकुलित हैं / करोडों रोगों से पीडित हो रहे हैं, ऐसे दु:खों को सहने में नारकी ही समर्थ हैं / वे कायर हैं, दीर्घायु के कारण सागरों पर्यन्त ऐसे दुःखों को भोगते रहते हैं / इसप्रकार मोह के वशीभूत हुये फिर-फिर मोह का ही सेवन करते हैं, मोह को ही भला मानते हैं, मोह की ही शरण में रहना चाहते हैं तथा (फिर भी) परम सुख की इच्छा रखते हैं / यह भूल कैसी है ? ___ इस भूल को आपके उपदेश बिना अथवा आपके गुण माने बिना, आपकी आज्ञा सर पर धारण किये बिना कैसे जानें त्रिकाल त्रिलोक में मोह कर्म को दु:ख का कारण कैसे जाने तथा मोह को जीते बिना दु:ख से निर्वत्ति नहीं हो सकती, निराकुल सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती / (यह भी कैसे जानें)। ____ मेरे अवगुणों का क्या देखना ? मैं तो अनादि से अवगुणों का पुंज ही बना हूँ / यदि मेरे अवगुण ही देखते रहेंगे तो (मुझे) परम कल्याण की सिद्धि नहीं होगी। आप जैसे सत्पुरुष ही अवगुणों को गुणों में परिवर्तित