________________ सम्यग्चारित्र 185 चरणानुयोग, द्रव्यानुप्रयोग, चार विकथायें, चार सुकथायें, तीन सौ तिरेसठ (363) कुवाद के धारक, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, तंत्र अथवा आठ प्रकार का निमित्त ज्ञान, न्याय नीति, छन्द, व्याकरण, गणित, अलंकार, आगम, अध्यात्म शास्त्रों का भी आपने निरूपण किया है / चौदह (14) धारा, तेईस (23) प्रकार की वर्गणा, ज्योतिष-व्यन्तर-भवनवासी- कल्पवासी चार प्रकार के देव, सप्त (7) नारकी तथा उनकी आयु, बल, पराक्रम, सुख, दु:ख का निरूपण आपने ही किया है। ___ अढाई द्वीप के क्षेत्र, कुलाचल, द्रह, कुंड, नदी, पर्वत, वन-उपवन क्षेत्र की मर्यादा, आर्य-अनार्य, कर्मभूमि-भोगभूमि की रचना, उनके आचरण, अवसर्पिणि-उत्सर्पिणि काल का चक्र, पल्य-सागर आदि आठ तथा संख्यात-असंख्यात-अनन्त के इक्कीस (21) भेद तथा पांच प्रकार के परावर्तन इनका स्वरूप भी आपने ही बताया है / हे भगवान, हे जिनेन्द्र देव, हे अरिहन्त देव, हे त्रिलोक गुरु ! आपका ज्ञान कैसा है ? इतना ज्ञान आपको एक समय में कैसे हुआ, इसका मुझे आश्चर्य है / आपके ज्ञान के अतिशय की महिमा हजार जिव्हा से भी नहीं कही जा सकती / मैं तो एक ज्ञेय को एक काल में स्थूल रूप से मुश्किल से जान पाता हूं / इसलिये हे दयालु मूर्ति ! आप जैसा मुझे भी करें / मुझे ज्ञान की बहुत चाह है। ___ आप परम दयालु हैं, मन वांछित वस्तु के देने वाले हैं, अत: मेरा भी मनोरथ सिद्ध करें, इसमें देर न करें / हे संसार समुद्र से तारने वाले, मोहलहर के विजयी, घातिया कर्मों के विध्वंसक, काम शत्रु के नाशक, संसार लक्ष्मी से विरक्त वीतराग देव ! आपको सर्व प्रकार सामर्थ्यवान जानकर तथा आपका तारण-विरद सुनकर अपनी कथा आपको सुनाता हूं, आपके चरणों की शरण में आया हूं, अतः हे जगतबंधु ! हे मातापिता ! हे दया भंडार ! मुझे चरणों की शरण में रखें, रक्षा करें, रक्षा करें, मोह कर्म से छुडावें।