________________ सम्यग्चारित्र 187 करते हैं / कुदेव आदि नीच पुरुषों ने तो गुणियों पर भी अवगुण ही किये हैं। मैने तो उनको बहुत अच्छा जानकर सेवा की थी, वंदना की थी, स्तुति की थी, तो भी उन्होंने मुझे अनन्त संसार में रुलाया। उन दुःखों की वार्ता वचनों द्वारा कही नहीं जा सकती। __सत्पुरुष तथा नीच पुरुष कैसे हैं उसका दृष्टान्त देते है - जैसे पारस को लोहे का घन (हथोडा) टुकडे-टुकडे कर देता है पर वह पारस तो उसे लोहे के घन को स्वर्णमय ही करता है। चन्दन को जैसे-जैसे घिसा जाता है वैसे-वैसे वह सुगन्ध ही देता है / गन्ने को ज्यों-ज्यों पेरा जाता है त्योंत्यों वह तो अमृत ही देता है। जल स्वयं जलता है तथा दूध को बचाता है, ऐसा इनका जाति-स्वभाव ही है, किसी का मिटाया मिटता नहीं। इसके विपरीत सर्प को दूध पिलाओ, परन्तु वह उस दूध पिलाने वाले के प्राणों का ही नाश करता है। सर्प अपना चमडा उतरवा कर भी अन्यों को बांधता ही है, मक्षिका अपने प्राण तज कर भी अन्यों को बाधा ही उत्पन्न करती है / इन्ही के सदृश्य उन दुर्जन कुदेवादि पुरुषों का स्वभाव जानना / इनका स्वभाव भी मेटा नहीं मिटता / स्वभाव की कोई औषध (बदलने के लिये विधि) नहीं है, मंत्र-तंत्र नहीं है, अतः स्वभाव का कभी नाश नहीं होता। __कुदेवादिक मान्यता का त्याग :- हे जिनदेव ! आपके प्रसाद से उन कुदेव आदि का स्वरूप भली प्रकार जाना, अतः मैं इन्हें विषधर के समान दूर से ही छोडता हूँ / धिक्कार हो ! भ्रष्ट पुरुषों को और उनके आचरण को तथा उनका सेवन करने वालों को तथा मेरी पूर्व अवस्था को भी धिक्कार हो / अब मैने जिनेन्द्र देव को प्राप्त किया है, उनकी श्रद्धा हुई अब मेरी बुद्धि धन्य है। मैं धन्य हूं, मेरा जन्म सफल हुआ, मैं कृतकृत्य हुआ, मैने जो करने योग्य था वह कर लिया, अब कुछ करना नहीं रहा / संसार के दुःखों को तिलांजलि दी। ऐसा तीन लोक में तीन काल में कौन सा पाप है, जो श्रीजी के दर्शन से, पूजा से, ध्यान से, स्मरण से, स्तुति से,