________________ प्रस्तावना 23 'जगद्गुरु काव्य' (वि० सं० 1646) में अकबर के आगे अपनी प्रान बेचने वाले राजानों की भर्त्सना करते हुए राणा प्रताप के प्रति श्रद्धा प्रकट की थी: केचिद् हिन्दुनपा बलश्रवणतस्तस्य स्वपुत्रीगणं, गाढाभ्यर्थनया ददत्य विकला राज्यं निजं रक्षितुम् / केचित्प्राभृतमिन्दुकान्तरचनं मुक्त्वा पुरः पादयोः , पेतुः केचिदिवानुगाः परमिमे सर्वेऽपि तत्सेविनः / / सं० 1646 में पद्मसागर कृत जगद्गुरुकाम्य, 88 कितने ही हिन्दू राजा उस (अकबर) के बल को सुन कर स्वयं के राज्य को बचाने के लिए अपनी पुत्रियों के समुदाय को बड़ी अभ्यर्थना के साथ उसे निरन्तर प्रस्तुत करते हैं। कितने ही चन्द्रकान्तमणि आदि जवाहरात देकर उसके पैरों पड़ते हैं और कितने ही उसके गाढ़ अनुयायी बन कर उसके सच्चे सेवक कहलाने की कामना करते हैं। (परन्तु एकमात्र मेदपाट का राणा प्रताप जो हिन्दू जाति का कलशभूत माना जाता है वह उस (अकबर)का तिरस्कार करता रहता है और अपने पूर्वजों की प्रान को निभाने के लिये दृढ़तापूर्वक मणनम बन रहा है।) हेमरतन ने भी प०च० को प्रशस्ति में महाराणा प्रताप का उल्लेख किया है: पृथ्वी परगट राण प्रताप / प्रतपई दिन दिन अधिक प्रताप / अपने युग की प्रेरणा ने ही हेमरतन को इस वीर रस की रचना की मोर प्रवृत्त किया था। कोई आश्चर्य नहीं कि पदमणि चपई के अतिरिक्त भी उसने कोई धीर रस की रचना की हो / पदमणी चउपई में रतनसेन के पुत्र वीरमाण की कल्पना इसी प्रकार के प्रान बेचने वाले राजाओं का प्रतिनिधित्व करती है। गोरा और बादल उस पान की रक्षा के लिये प्राण देने वाले वीरों के प्रतीक हैं। बड़े ही उपयुक्त समय में हेमरतन ने अपना यह चरितकाव्य प्रस्तुत किया था। इसमें भारतीय नारी के सतीत्व और कुल मर्यादा की रक्षा हेतु प्राण देने वाले लोक-प्रसिद्ध चरितों को अंकित किया है। ऐसी रचना का महत्व भी उसी समय प्रकट हो गया था। मेवाड़ के पुनरुद्धार (वि० सं० 1643) के साथ ही इसकी प्राधार की भूमि तैयार हुई और दो वर्षों में उस जनता के सम्मुख प्रकाशित कर दी गई जो ऐसे ही त्याग का दिन-रात अनुभव कर रही थी। उसी समय यह रचना इतनी लोकप्रिय भी हो गई कि कवि के जीवन-काल में हो इसकी अनेक प्रतियां दूर-दूर तक पहुंच गईं। अनेक लिपिकारों और क्षेपककारों ने इसमें क्षेपक जोड़े, संशोधन परिवर्तन और परिवर्द्धन करके इसकी लोक-प्रियता