________________ प्रस्तावना (3) तालव्य 'श्' और दन्त्य 'स्' का एक दूसरे के स्थान पर मनि यमित प्रयोग : जीपेशां (४०४)-जीपिसु (465), करशां (४०१)-करेसां (537 A,E), करेसुं (536) (4) मध्यग-व- के स्थान पर कहीं- य - पोर कहीं-प्र का अनियमित प्रयोग : बहुअर (446), - बहूयर (B,C,E) - बहूवर (D) खान (361) - खावां जावइ (478) - जायइ (468) (5) स्वर-लोप द्वारा शब्द - संयोग की प्रवृत्ति : न + प्रावइ = नावइ (25) न + पादरी = नादरी (485) ___ म + आवइ = मावइ (422) (6) मध्य अनुनासिक - एँ - का - प्रा - में परिवर्तन : (क) वात सहू बहू पर नां कही (446 A) स्त्री० ए० (ख) सिंघलपति नां सिरपा दोउँ (222 A) पु० ए० (ग) मोटा नां परि दी मान (223 A) ब० व० उक्त रचना में इस प्रवृत्ति का प्रभाव कर्म कास्क के चिन्ह 'ने' पर पड़ने से उसका 'नो' हो गया है / आधुनिक बोली में इस क्षेत्र में 'थने कहयो' के स्थान पर 'थनां कियो' बोला जाता है / कर्म कारक में ही यह प्रवृत्ति सीमित नहीं है / मध्यस्थित स्वरों की यह प्रवृत्ति ध्यान देने योग्य है : भांश भैस; फांक्यो 2 फैक्यो, खांच्यो / खेंच्यो प्रादि। प०च० में खंची (563) 8 खांची / बैंची 3. पदमणि चउपई में मध्यराजस्थानी की गोड़वाड़ी बोली की स्थानीय प्रवृत्तियां : (क) संख्यावाचक दो-तीन (2,3) के स्थान पर बे-त्रण तथा उसके रूपों का प्रयोग : बि - च्यार (544), बी - सहस (105), बे (67), विवणडे (204) बेउ (54), बेइ (36) बेही (80), बिहुँ (7), बिहु (151), न्युं (92), व्यउँ (503), बिया (546), बीजा (366), बीजी (50) /