________________ 236 गुणस्थान विवेचन करते हैं। - ऐसे सर्वप्रकार से पूजने योग्य श्री अरहंत देव हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो।" ___ आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 63-64 में सयोगकेवली गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - केवलणाण दिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललद्धग्गम सुजणिय-परमप्पववएसो।। असहायणाणदंसणसहिओ, इदि केवली हु जोगेण। जुत्तोत्ति सजोगजिणो, अणाइणिहणारिसे उत्तो।। घाति चतुष्क के क्षय के काल में औदयिक अज्ञान नाशक तथा असहाय केवलज्ञानादि नव लब्धिसहित होने पर परमात्मा संज्ञा को प्राप्त जीव की योगसहित वीतराग दशा को सयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं। ___घाति चतुष्क अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्मों का क्षय होते ही (उसी समय) केवलज्ञानादि नव लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। ये दोनों कार्य एक ही समय में होते हैं। इस ही एक समय के घटना/कार्य को “चार घाति कर्मों के क्षय के निमित्त से केवलज्ञानादि होते हैं" - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक भाव से कहते हैं। इस विषय को आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के १०वें अध्याय में प्रथम सूत्र द्वारा स्पष्ट किया है - मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् / कर्मों के नाश होने से केवलज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती। कोई स्वयं मरनेवाला अन्य को कैसे जन्म दे सकता है ? कर्मों का नाश केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता। केवलज्ञान की पर्याय तो जीवद्रव्य के ज्ञान गुण में से प्रगट होती है। दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यन्त मोहकर्म है; मोहकर्म आगे नहीं है। बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यन्त ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्म हैं, वे आगे नहीं हैं। इनके अभावरूप निमित्त को मुख्य करके निमित्त का ज्ञान कराने के लिए मोह एवं ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्मों के क्षय से केवलज्ञान हुआ; ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध देखकर व्यवहारनय से, उपचार से घाति कर्मों के नाश से केवलज्ञान होता है; ऐसा आचार्यश्री कथन करते हैं।