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________________ सयोगकेवली गुणस्थान तेरहवें गुणस्थान का नाम सयोगकेवली है। यह क्षपकश्रेणी के चारों गुणस्थानों के बाद प्राप्त होनेवाला प्रथम गुणस्थान है / क्षीणमोह गुणस्थान में जो सुख पूर्णरूप से परिणमित हुआ था, अब वही सुख यहाँ केवलज्ञान के सदभाव से अनंत सुखरूप से कहा गया है। जीव की सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व शक्ति का पूर्ण विकास हो गया है। शरीर सहित होने पर भी शरीर से निर्लेपता व निरपेक्षता का साक्षात् जीवन अर्थात् सयोग केवली अवस्था है। वीतरागता का फल ही सर्वज्ञता एवं सर्वदर्शित्व है, अब वह व्यक्त हो गया है। अरहंत अवस्था में निम्नोक्त अठारह दोष नष्ट हो गये हैं छहतबहभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्च। सेदं मदो मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो।।६ / / नियमसार अर्थ :- क्षुधा, तृषा, भय, रोष (क्रोध) राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद (पसीना), खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग (यह अठारह दोष हैं)। भूख, प्यास, बीमारी, बुढ़ापा, जन्म, मरण, भय, राग, द्वेष / गर्व, मोह, चिंता, मद, अचरज, निद्रा, अरति, खेद अरु स्वेद / / मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 2 पर भी अरहंतों का स्वरूप अत्यंत मार्मिक रूप से स्पष्ट किया है। आशिक कथन निम्नप्रकार है - "देवाधिदेवपने को प्राप्त हुए हैं। तथा आयुध, अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम क्रोध आदि निंद्यभावों के चिन्ह, उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है। जिनके वचनों से लोक में धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा जीवों का कल्याण होता है। जिनके लौकिक जीवों के प्रभुत्व मानने के कारणभूत अनेक अतिशय और नाना प्रकार के वैभव का संयुक्तपना पाया जाता है। जिनका अपने हित के अर्थ गणधर - इंद्रादिक उत्तम जीव सेवन
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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