________________ क्षीणमोह गुणस्थान 229 आचार्यश्री नेमिचंद्र ने गोम्मटसार गाथा 62 में क्षीणमोह गुणस्थान की परिभाषा निम्नप्रकार दी है - णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसायो भण्णदि, णिग्गंथो वीयरायेहिं।। स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए निर्मल जल के समान संपूर्ण कषायों के क्षय के समय होनेवाले जीव के अत्यंत निर्मल वीतरागी परिणामों को क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। परिभाषा में क्षीणमोही जीव के वीतराग परिणाम को निर्मल जल की उपमा दी है। वह जल भी स्फटिकमणि के पात्र में रखा हुआ निर्मल जल है। यहाँ पात्र में से किसी भी प्रकार की गंदगी दुबारा पानी में आने की संभावना की शंका भी न हो, इसलिए स्फटिक मणि का पात्र लिया है। देखो, आचार्यों की सूक्ष्मदृष्टि ने पात्र (बर्तन) को कैसा विचारपूर्वक चुना है। महापुरुषों की दृष्टि में दृष्टांत भी अनुपम एवं मूल विषय के पोषक होते हैं / क्षीणमोही मुनिराज के भावी जीवन में किसी भी प्रकार की अशुद्धता की संभावना ही नहीं है। इस अभिप्राय को अत्यंत स्पष्ट करने के लिए ही स्फटिकमणिमयी पात्र में रखा हुआ निर्मल जल लिया है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज का मोह अब तो अनंतकाल के लिये नष्ट हो गया है / अंतिम सूक्ष्मलोभ कषाय का व्यय और पूर्ण वीतरागता का उत्पाद - इन दोनों की काल-प्रत्यासत्ति को अत्यंत स्पष्ट करने के लिए बारहवें गुणस्थान की परिभाषा में “कषायों के क्षय के समय" इन शब्दों का प्रयोग किया है। बारहवें गुणस्थान के नाम में प्रयुक्त क्षीण शब्द का अर्थ दुबला, निर्बल अथवा अशक्त नहीं करना चाहिए। यहाँ क्षीण शब्द का अर्थ अभाव/नाश है। वीतराग शब्द का शाब्दिक अर्थ है - “विगतः रागः यस्मात् सः वीतरागः” जिसमें से राग निकल गया है, उसे वीतराग कहते हैं। यहाँ