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________________ રર૮ गुणस्थान विवेचन जैसे अल्प क्षयोपशम वाले मुनिराज को कम सुखी मानना पड़ेगा, जो शास्त्र तथा युक्ति से भी सम्मत नहीं हो सकता। अतः मोह से रहित वीतराग परिणाम ही निश्चय से सुख है। अब यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त मात्र काल व्यतीत हो जाने पर ये क्षीणमोही मुनिराज नियम से अरहंत परमात्मा हो जाते हैं। बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, इस गुणस्थान के प्रथम समय से ही क्षीणमोही हो गये हैं। अर्थात् आठों कर्मों में से मोह कर्म का सर्वथा नाश हो गया है। वे इस गुणस्थान के प्रथम समय से ही अरहंत परमात्मा होने के लिए तीन घाति कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहे हैं। वीतराग हुए बिना सर्वज्ञ होना संभव नहीं है, यह बात सत्य होने पर भी वीतराग होते ही तत्काल बारहवें गुणस्थान के पहले समय में ही सर्वज्ञ नहीं होते हैं। 107. प्रश्न : बारहवें गुणस्थान में क्षीणमोही होते ही सर्वज्ञ हो जाना चाहिए था; इसमें क्या आपत्ति है ? उत्तर : ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों की सत्ता व उदय ही सर्वज्ञ होने में निमित्तरूप में बाधक है; क्योंकि दसवें गुणस्थान में भी राग परिणाम से ज्ञानावरणादि का बंध हुआ था। तथा पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों की भी सत्ता है, उनका क्षय होते ही केवलज्ञान होता है। तीन घातिकर्मों के नाश के लिये अंतर्मुहूर्त पर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान/शुद्धोपयोग का होना आवश्यक है। मुनिराज वीतराग होने के बाद सर्वज्ञ होते हैं, यह सामान्य कथन है और पूर्ण वीतराग होने पर भी एक अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान/शुद्धोपयोग करने के बाद ही तीनों घातिकर्मों का क्षय होने से मुनिराज सर्वज्ञ होते हैं, यह कथन विशेष तथा सूक्ष्म है। (विशेष स्पष्टीकरण के लिए पंचास्तिकाय गाथा 150-151 की टीका देखिये) __ यदि बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही मुनिराज सर्वज्ञ हो जाते हैं तो बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान का अभाव हो जायेगा और गुणस्थान चौदह के स्थान पर तेरह ही सिद्ध होंगे।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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