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________________ Pee गुणस्थान विवेचन सत्ता में डेढ़गुण हानि गुणित ही समयप्रबद्ध होते हैं, जो असंख्यात गुणा होते हैं। इसलिए अनंतगुणा का प्रश्न ही उत्पन्न होता नहीं। ____ यदि अल्पकाल में ही मुनिराज सिद्ध भगवान हो जायेंगे तो गुणस्थान मात्र सात ही रहेंगे। तेरहवें गुणस्थान अरहंत अवस्था में होनेवाले विहार, दिव्यध्वनि से होनेवाला उपदेश आदि के लिये अवकाश ही नहीं रहेगा; सर्वज्ञ कथित व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी। __इससे दो द्रव्यों के परिणमन की स्वतंत्रता स्वयमेव स्पष्ट हो ही जाती है। जीव द्रव्य में प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि हो रही है; वह अपनी स्वतंत्र योग्यता (उपादान) से और उसी समय विशुद्धता का निमित्त पाकर सत्ता में पड़े हुए कर्मपरिणत पुद्गलस्कंधों की असंख्यातगुणी निर्जरारूप कार्य स्वयमेव हो रहा है, वह भी पुद्गल की अपनी स्वतंत्र योग्यता से। किसी का परिणमन किसी के आधीन नहीं है / जीवादि सर्व अनंतानंत द्रव्यों का परिणमन अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वाधीन है। 5. गुणसंक्रमण अर्थात् अनेक अशुभ प्रकृतियाँ शुभ प्रकृतियों में बदल जाती हैं। 81. प्रश्न : संक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर : विवक्षित कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का सजातीय अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होने को संक्रमण कहते हैं। __ जैसे - जीव के विशुद्ध परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध असाता वेदनीय प्रकृति के परमाणुओं का सातावेदनीय के रूप में परिणमित होना। __इसमें भी इतनी विशेषता है कि 1. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। 2. चारों आयु कर्मों में आपस में संक्रमण नहीं होता। 3. मोहनीय कर्म का उत्तर भेद दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय कर्म में संक्रमण नहीं होता। 4. दर्शनमोहनीय के भेदों में एवं चारित्रमोहनीयकर्म के भेदों में परस्पर संक्रमण होता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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