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________________ अपूर्वकरण गुणस्थान 189 इस प्रकरण में रहस्यमय बात यह है कि जीव के मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्म बिना बदले जैसे के तैसे ही सत्ता में बने रहें और उसीरूप से उदय में आकर जीव को फल दें; ऐसा नियम नहीं है। ___ जीव के परिणामानुसार सत्ता के कर्मों में परिवर्तन स्वयमेव होता ही रहता है; क्योंकि जीव के परिणाम सतत बदलते रहते हैं। अतः पूर्वबद्ध पाप कर्मों की चिंता से व्यग्र/आकुलित होने की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं है। जैसे - किसी धनवान मनुष्य ने 25 वर्ष पूर्व अत्यंत उत्साह और धर्मभावना से लाखों रुपये जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, ग्रंथ प्रकाशनादि व्यवहार धर्म कार्यों में खर्च किये थे। उसके उस पुण्य परिणाम के अनुसार विशेष पुण्यकर्म का बंध भी उसीसमय स्वयमेव हुआ था। वर्तमानकाल में उसी धनवान मनुष्य के पूर्व काल में बँधे हुए किसी पाप कर्म के उदय से दरिद्रता आ गयी है / अब वह सोच रहा है कि यदि मैं 25 वर्ष पूर्व लाखों रुपये धर्मकार्यों में खर्च नहीं करता तो अच्छा रहता, आज गरीबी नहीं आती। वर्तमानकालीन इस विपरीत चिन्तन अर्थात् अशुभभाव से पूर्वबद्ध पुण्यकर्म प्रथम तो तत्काल क्षीण/हीन हो जाते हैं; फिर यदि अशुभ विचारों की प्रबलता रहेगी तो पुण्यकर्म संक्रमित होकर पापकर्मरूप हो जाता है; इसे संक्रमण कहते हैं। इसीप्रकार पाप का संक्रमण पुण्य में भी हो जाता है। 6. भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। जैसे :- अधःप्रवृत्तकरण में भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी हो सकते हैं; किन्तु इस अपूर्वकरण गुणस्थान में परिणाम समान नहीं होते। भिन्न-भिन्न समयवर्ती अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं और समान समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी होते हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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