________________ अपूर्वकरण गुणस्थान निर्जरा का प्रारंभ होता है। नक्शे से इस विषय को स्पष्ट करते हैं। पास के नक्शे में 1 से लेकर 7 पर्यंत संख्या क्रम से दिखाई गयी है। एक क्रमांक की जो पहली आड़ी लकीर है, उससे द्वितीय क्रमांक की लकीर चौड़ाई में अधिक है अर्थात् पहले समय , में जितने कर्मों की निर्जरा होती है, उनसे " असंख्यात गुणी अधिक कर्मों की निर्जरा + 4 द्वितीय समय में होती है। द्वितीय समय में 83 जितने कर्म निर्जरित होकर झड़ जाते हैं. तृतीय + समय में उनसे असंख्यात गुणे अधिक कर्म झरते रहते हैं। ऐसा ही क्रम अब भविष्य में अखंडरूप से बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत चलता ही रहेगा। इसे ही गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं। गुणश्रेणी की रचना होना और गुणश्रेणीरूप निर्जरा होते रहना यह क्रम जीव के वृद्धिंगत शुद्ध परिणामों से स्वयमेव होता ही रहता है। इसमें अपने सहज स्वभाव के आश्रय से निरंतर शुद्धि की वृद्धि करते रहना; यह तो जीव का कार्य है और कर्मों की निर्जरा होना यह पुद्गल में होनेवाला कार्य है। कर्मों की निर्जरा का उपादान कर्ता पुद्गल द्रव्य है, जीव नहीं। 80. प्रश्न : श्रेणी पर आरूढ़ मुनिराज के वीतराग परिणामों में प्रतिसमय जब अनंतगुणी वृद्धि हो रही है, तब कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी के स्थान पर अनंतगुणी क्यों नहीं होती? उत्तर : श्रेणी पर आरूढ़ मुनिराज के परिणामों में विशुद्धि अनंतगुणी पाई जाती है, वह अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा से है और कर्मों की निर्जरा समयप्रबद्ध प्रमाण से होती है। ___ एक संसारी जीव के अधिक से अधिक असंख्यातासंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण ही कर्म का सत्त्व पाया जाता है तो निर्जरा अनंतगुणा कैसी होगी ? एक समय में उत्कृष्ट से असंख्यात समयप्रबद्ध की ही निर्जरा होती है, उससे अधिक नहीं होती; अतः निर्जरा का प्रमाण असंख्यातगुणा ही होता है इसलिए अनंतगुणी निर्जरा नहीं होती।