________________ 186 गुणस्थान विवेचन स्थितिकांडक घात समझने के लिये नक्शे की मदद लेते हैं। लकीर पूर्वबद्ध कर्म के स्थान पर है। लकीर के ऊपरी भाग के बगल में एक चौक दिखाया है, जो बहुत वर्षों के बाद उदय में आने योग्य सत्ता में पड़े हुए कर्मों का पुंज है। उस कर्मपुंज से नीचे की ओर जाता हुआ बाण दिखाया है। इसका अर्थ बहुत वर्षों के बाद उदय में आने योग्य कर्मों को विशुद्ध परिणामों के निमित्त होने से कम वर्षों में उदय आने योग्य विशिष्ट प्रमाण से अर्थात् उपरितन विभाग में स्थित कर्मों की स्थिति घटकर अधःस्तन के विभाग में मिल गये, इसी को स्थिति-कांडकघात कहते हैं। ___3. पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का अनुभाग कांडकघात होता है। वृद्धिंगत वीतरागता और मंदकषायरूप परिणामों के कारण ऊपर स्थितिकांडक घात समझाया है। नक्शे से भी समझाने का प्रयास किया है। जिस पापकर्म का जितना स्थितिकांडकघात होता है, उस मात्रा में उस पापकर्म का अनुभाग नियम से कम होता है; ऐसा कर्म शास्त्र का नियम है। अधिक अनुभागवाले कर्मपरमाणुओं का नीचे कम अनुभागवाले कर्मपरमाणुरूप विशिष्ट प्रमाण से शक्तिहीन होना ही अनुभागकांडक घात है। अनुभाग अधिक और कर्म-परमाणु कम तथा अनुभाग कम एवं कर्मपरमाणु अधिक, ऐसा ही अनुभाग बंध और प्रदेशबंध का स्वरूप है। ___4. अपूर्वकरण परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा का प्रारंभ हुआ है। ___ पहले समय में जितने कर्मों की निर्जरा होती है, दूसरे समय में उनसे असंख्यातगुणे अधिक कर्मों की निर्जरा होती है, उसे असंख्यातगुणीनिर्जरा कहते हैं। * पहले तो पूर्वबद्ध सत्ता के कर्मों में जीव के परिणामों के निमित्त से स्वयमेव कर्मों की गुणश्रेणी रचना होती है। तदनंतर फिर गुणश्रेणी