SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 178 गुणस्थान विवेचन और क्षायिक सम्यग्दृष्टि मुनिराज उपशम अथवा क्षपक इन दोनों श्रेणियों में से किसी भी एक श्रेणी पर आरोहण कर सकते हैं। 72. प्रश्न : द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मुनिराज क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ते; इसका क्या कारण है ? उत्तर : पुरुषार्थ की कमी के कारण जिन मुनिराजों ने यथार्थ श्रद्धा में बाधक दर्शनमोहनीय कर्मों का सत्ता में से सर्वथा नाश नहीं किया हो, उन्हें चारित्रमोहनीय कर्म का नाश करने का उग्र पुरुषार्थ कहाँ से और कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। वास्तविक स्थिति यह है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के पास अभी दर्शनमोहनीय कर्म की सत्ता है; इस कारण कुछ विशिष्ट काल समाप्त हो जाने पर वे मुनिराज कदाचित् नीचे के गुणस्थानों में गिरकर मिथ्यादृष्टि भी हो सकते हैं। अपने पुरुषार्थ की कमी के कारण, पूर्व संस्कारवश व सत्ता में रहे हुए कर्म का उदय आने पर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल पर्यंत संसार में परिभ्रमण भी कर सकते हैं। जिन मुनिराज की श्रद्धा भविष्य में किंचित् मात्र भी मलिन होने की संभावना है, उन मुनिराज की वर्तमानकालीन पर्याय में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करने की योग्यता नहीं होती। __ ऊपर के विवेचन से हमें यह निर्णय हो जाता है कि श्रद्धा की किसी भी प्रकार की अंशमात्र भी कमी अथवा उसके बाधक कर्म की सत्ता भी चारित्र की निर्मलता में और पूर्णता में बाधक होती है। इसलिए प्रथम श्रद्धा की निर्मलता के लिए अप्रतिहत पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। श्रद्धा की क्षायिकरूप परिपूर्ण निर्मल दशा प्रगट होने पर ही चारित्र की पूर्णता करने का पुरुषार्थ जागृत होता है। चारित्र अर्थात् सर्वोत्कृष्ट धर्म, मुक्ति की प्राप्ति का साक्षात् कारणरूप धर्म प्रगट करने के लिये अथवा विशेष विकसित करने के लिये अथवा पूर्ण करने के लिये सर्वप्रथम, धर्म का मूल जो सम्यग्दर्शन है, वह क्षायिकरूप होना ही चाहिए; ऐसा सर्वथा नियम है। इसलिए द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी मुनिराज की क्षपकश्रेणी चढ़ने की वर्तमान काल में योग्यता नहीं होती है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy