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________________ 177 अपूर्वकरण गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 50 में अपूर्वकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - अंतोमुहुत्त कालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं। पडिसमयं सुज्झंतो, अपुव्वकरणं सम्मिल्लियइ।। अधःप्रवृत्तकरण संबंधी अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण कर प्रति समय अनंतगुणी शुद्धि को प्राप्त हुए परिणामों को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती। इस गुणस्थान का पूरा नाम “अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत' है। उपरिम समयवर्ती जीव के परिणाम और निम्न समयवर्ती जीव के परिणामों में समानता का होना, उसे अनुकृष्टि कहते हैं। ऐसी समानता अपूर्वकरण गुणस्थान में नहीं होती; क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान में जीव के प्रत्येक समय के परिणाम पूर्व समय की अपेक्षा अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं। यहाँ एक समयवर्ती परिणामों में समानता और असमानता दोनों पायी जाती है। __ भेद अपेक्षा विचार - उपशमक अपूर्वकरण और क्षपक अपूर्वकरण - ऐसे दो भेद हैं। अपूर्वकरणप्रविष्ट शुद्धिसंयत संबंधी स्पष्टीकरण - शब्दार्थ - अ = नहीं, पूर्व = पहले, अपूर्व = अत्यन्त नवीन, करण = परिणाम; अर्थात् पूर्व में कभी भी प्रगट नहीं हुए हों ऐसे अत्यन्त नवीन शुद्ध परिणाम / प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त, शुद्धि = शुद्धोपयोग, संयत = शुद्धात्मस्वरूप में सम्यक्तया लीन / चारित्रमोहनीय कर्म की 21 प्रकृतियों के उपशम या क्षय में निमित्त होनेवाले, पूर्व में अप्राप्त, विशिष्ट वृद्धिंगत, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत है। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - अपूर्वकरण गुणस्थान में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व इन दोनों सम्यक्त्वों में से मुनिराज को कोई एक सम्यक्त्व रहता है। द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मुनिराज तो उपशम श्रेणी पर ही आरूढ़ होते हैं
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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