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________________ अपूर्वकरण गुणस्थान __ 179 दर्शनमोहनीय कर्म का पूर्ण नाश होने पर ही चारित्रमोहनीय कर्म के नाश होने का क्रम है। सर्वज्ञ भगवंतों ने केवलज्ञान से जिसे जाना है, परम्परा से प्राप्त उसी ज्ञान को दिगम्बर मुनिराजों ने शास्त्र में लिपिबद्ध किया है। 73. प्रश्न : मुनिराज को द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होना ही नहीं चाहिए, वे ऐसा जघन्य कार्य करते ही क्यों हैं ? उत्तर : कर्मों का उपशम करना अथवा क्षय करना यह काम न किसी मुनिराज का है और न किसी भी श्रावक का है; क्योंकि कर्म जड़ हैं और वे आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं। ___मुनिराज निज शुद्धात्मा में रमण करनेरूप कार्य (चारित्र) करते रहते हैं। उसके निमित्त से कर्मों में उनकी अपनी स्वयं की योग्यतानुसार जो अवस्था होनी होती है, वह होती रहती है। ___ मुझे क्षायिक सम्यक्त्व करना है, इस चाह से किसी को भी क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता, मुक्ति भी नहीं होती है / एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का अच्छा-बुरा अथवा दूसरे द्रव्य में कुछ हेर-फेर कर ही नहीं सकता; ऐसा निःशंक निर्णय करना चाहिए। 74. प्रश्न : करणानुयोग के कथन के समय बीच-बीच में अध्यात्म का विषय क्या खीर में कंकड जैसा नहीं लगता ? उसे छोड़कर बात करो न ! उत्तर : अरे भाई ! तुमने यह क्या बात कर दी? करणानुयोग में अध्यात्म कंकड़ जैसा नहीं शक्कर जैसा है। जैसे - शक्कर बिना खीर, खीर सी नहीं लगती; वैसे ही अध्यात्म बिना करणानुयोग की अपेक्षा समझ में नहीं आती। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता; सर्वद्रव्य स्वाधीन तथा स्वतंत्र एवं स्वयं परिणमनशील है। यह तो सर्वज्ञ कथित वस्तु-व्यवस्था का मूल प्राण अर्थात् सर्वस्व है। यह मात्र अध्यात्म का ही विषय नहीं है, चारों अनुयोगों का मूल आधार है। इसके बिना जीवन में धर्म होने की बात तो जाने दो, धर्म समझने की पात्रता भी नहीं आ सकती।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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