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________________ 174 गुणस्थान विवेचन ___ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में निवास करनेवाले सर्व महामुनिराज अभूतपूर्व अतीन्द्रिय आत्मानन्द का प्रचुरता से रसपान करते हैं। 6. उपरिम समयवर्ती जीवों के परिणामों से निम्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की सदृश-स्थिति को अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। ___ समझ लो, सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती दो मुनिराज हैं। एक मुनिराज को सोलहवें समय में आने वाला शुद्ध परिणाम पंद्रहवाँ समय बीत जाने पर सोलहवें समय में हुआ। अन्य मुनिराज को विशेष पुरुषार्थ द्वारा मात्र पन्द्रह, चौदह व तेरह समय व्यतीत होने पर ही सोलहवें समय के योग्य/सदृश शुद्ध परिणाम हो गया। इसप्रकार उपरिम समयवर्ती जीव के परिणामों से निम्न (अधः) समयवर्ती जीव के परिणामों की सदृशता घटित हुई; इसे ही अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं। उपरोक्त भिन्न समयवर्ती परिणामों की सदृशता को अनुकृष्टि रचना भी कहते हैं। 7. चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम तथा क्षय के प्रसंग में अपूर्वकरण के सन्मुख शुद्धोपयोग परिणामों को अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं। 8. सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मरणकर विग्रहगति के समय चौथा गुणस्थान हो जाता है। अथवा मरण के पहले सातवें गुणस्थान से गिरकर छठवें, पाँचवें, चौथे , दूसरे एवं पहले गुणस्थानों में से किसी भी एक गुणस्थान में आने पर मरण हो सकता है; परन्तु यह नियम नहीं है कि सातवें गुणस्थानवाले चौथे गुणस्थान में ही आकर मरण करें; क्योंकि सातवें गुणस्थान में भी मरण हो सकता है। धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 179 से 180) सामान्य से अप्रमत्तसंयत जीव हैं / / 15 / / प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं, जिनका संयम प्रमाद
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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